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मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

यूँ बेसबब भी मुस्कराते रहना


यूँ बेसबब भी मुस्कराते रहना
अश्क पलकों में छुपाते रहना

रकीबत चीज बहुत ही बुरी है
के सबसे यारी निभाते रहना

पैरों की आहट वो भूल ना जाए
घर भी कभी आते जाते रहना

रिश्तों में तल्खियाँ अच्छी नहीं
सर ये अपना भी झुकाते रहना

कौन अपना कौन पराया है यहाँ
दुआ सलाम सबसे उठाते रहना

सोमवार, दिसंबर 28, 2009

जिंदगी अब मेरी गुनाह हो गयी


ग़मों की दौलत बेपनाह हो गयी
जिंदगी अब मेरी गुनाह हो गयी

भटका बहुत मंजिल के लिए मैं
पर हर राह यहाँ गुमराह हो गयी

वही दिनों-रात, वही-शामो सहर
बस कम उसकी निगाह हो गयी

वो खफा हुआ, दुनिया लुट गयी
बेमुकाम फिर मेरी आह हो गयी

शब् की सूरत सा हमदम मिला
तारीकियों की अब चाह हो गयी

मर मर के जिए, जी जी के मरे
कुछ यूँ ही उम्र निबाह हो गयी

रविवार, दिसंबर 27, 2009

मैं जिसके लिए उम्र भर दीवाना रहा


मैं जिसके लिए उम्र भर दीवाना रहा
एक वो ही मेरे प्यार से अंजाना रहा

फजाओं में भी खिजा का आलम रहा
बस मेरा ही घर उसका निशाना रहा

हमी से हर अदावत निभा रखी उसने
रकीबों के घर यूँ तो आना जाना रहा

हमने ना सीखी जफा पे जफा करना
वफाओं का चलन हमने पुराना रहा

जख्म खाए दिलों पे औ खामोश रहे
कुछ यूँ भी उल्फत का निभाना रहा

एक मुद्दत से उसकी कुर्बत को तरसे
उमर भर हिजर का ही ज़माना रहा

छोड़ आये थे जिसके लिए घर अपना
वो कूचा औ शहर हमसे बेगाना रहा

बुधवार, दिसंबर 23, 2009

मयकशी मेरी आदत मुझे बदहवाश रहने दे


अपनी खुशबू का साँसों में अहसास रहने दे
जो कुछ है बस यही तो है मेरा खास रहने दे

मिल के बिछड़ना फिर बिछड़ के मिलना यूँ
उम्र भर के लिए आँखों में ये तलाश रहने दे

ना मांग लेना अपनी आहों के लम्हे उधार में
एक यही तो बची है दौलत मेरे पास रहने दे

माना के आब सा जुनूँ रखते हो जज्बात में
पर मैं तो हूँ सहरा मुझमे मेरी प्यास रहने दे

नहीं होना शामिल मुझे वाइजों की जात में
मयकशी मेरी आदत मुझे बदहवाश रहने दे

सोमवार, दिसंबर 21, 2009

मेरे जख्मो पे नमक लगाने तो आएगी


मेरे जख्मो पे नमक लगाने तो आएगी
चलो वो मिलने किसी बहाने तो आएगी

मयकशी से इश्क का ये नशा कम करेंगे
ऐसे ही अपनी अक्ल ठिकाने तो आएगी

शब् भर उसकी याद में ना जागा करेंगे
बादे-सबा चलेगी सहर उठाने तो आएगी

काम सय्याद का किये जायेंगे अब हम
कोई बुलबुल यूँ कभी निशाने तो आएगी

ना रहतीं बहारें रूठी ज्यादा दिनों तलक
रुत जरुर कोई समर उगाने तो आएगी

सोचता हूँ "राज" उसके लिए भी रो लूँ
पशेमाँ होके एक रोज मनाने तो आएगी

सोमवार, दिसंबर 07, 2009

किसे भूल जाऊं और किसे याद रखूं


किसे भूल जाऊं और किसे याद रखूं
सोचता हूँ खुद को ही बस बर्बाद रखूं

और जो मंज़र मुझे रुलाया करते हों
उम्र भर उनको जेहन में आबाद रखूं

वो मुझे दुआ में बद्दुआ देती रहा करे
पूरी हो उसकी दुआ मैं फ़रियाद रखूं

अपने महबूब का सजदा किया करूँ
खुदा को भी अब तो उसके बाद रखूं

नहीं होना मुझे शायर तुम जैसा यारों
बहर से अपनी ये ग़ज़ल आजाद रखूं

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

जिन्दगी अब मुझको खराब सी लगती है


मयकश के जामों की शराब सी लगती है
जिन्दगी अब मुझको खराब सी लगती है

जिसको भी देखो लूटने को बेचैन हुआ है
तवायफ के हुश्न-ओ-शबाब सी लगती है

रोज इबादत यूँ तो उस खुदा की करता हूँ
फिर भी मुझे बंदगी अजाब सी लगती है

मुहब्बत की ये पहेली कुछ अजब रही है
सवाल पे सवाल, बेहिसाब सी लगती है

कुसूर उन निगाहों का है या खता मेरी है
के शाम ढलके भी आफताब सी लगती है

इश्क में तबाही के मंजर क्या हुए "राज"
मेरी सूरत बस उनके जवाब सी लगती है

मंगलवार, नवंबर 24, 2009

लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए



लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए
ये शब सुर्ख बहुत है अब सहर चाहिए

क़त्ल करके भी वो कातिल रोता फिरे
अपने इश्क में कुछ ऐसा हुनर चाहिए

रुदादे गम कुछ यूँ सबसे कह देना तुम
के नम आँखें लिए हर इक बशर चाहिए

जो आंधियां भी आयें तो सहमी सी फिरें
आँगन में मुझको बेख़ौफ़ शजर चाहिए

ले-ले कर हिचकियाँ दम निकले उनका
यादों में अपनी कुछ ऐसा असर चाहिए

हमारे रकीबों से उनकी बनती है तो बने
पर हमसे ही धड़के उनका जिगर चाहिए

यक-ब-यक 'राज' जो कभी चार हो जाएँ
झुक जाएँ फिर शर्म से, वो नजर चाहिए.

शनिवार, नवंबर 14, 2009

इश्क में कुछ यूँ दिल पे असर होता है


इश्क में कुछ यूँ दिल पे असर होता है
शब् का आलम भी जैसे सहर होता है

तूफां से गुजरता है जब बेखौफ शजर
तब जाके कहीं शाखों पे समर होता है

तू क्या कहती है के, मैं जुदा हूँ तुझसे
चोट लगती है तुझे, दर्द इधर होता है

मिलते हैं कभी किताबों में गुलाब तेरे
रात भर फिर खुशबू का सफ़र होता है

मुहब्बत गुनाह ऐसा है, के उम्र भर रहे
बस कभी तेरे तो कभी मेरे सर होता है

कैसे यकीन मैं खुद की किस्मत पे करूँ
मुझे हर घडी तुझे खोने का डर होता है

सच है के सुकूँ बहुत मिलता है जान के
हिज्र का मातम जो अब तेरे घर होता है

रविवार, नवंबर 08, 2009

दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी


दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी
गुलिस्ताँ से रूठ कर जब बहार चल पड़ी थी

आसमाँ तलक मुझे बस सन्नाटा ही मिला
नजर होके जब घर से बेकरार चल पड़ी थी

आँखों में बेसबब ही ख्वाब आते जाते रहे थे
वो नजर करके कैसा कारोबार चल पड़ी थी

जाने क्या जिद के चराग जलता रहा घर में
ये हवा तो उसकी जानिब तैयार चल पड़ी थी

शहर का शहर अजनबी सा लगने लगा मुझे
चंद लम्हें क्या वो साथ में गुजार चल पड़ी थी

हयात से कभी कोई गुजारिश नहीं थी "राज"
तो वो भी देके, इश्क ऐ आजार चल पड़ी थी.

गुरुवार, अक्तूबर 29, 2009

दर्द का मौसम भी एक रोज गुजर जाएगा


दर्द का मौसम भी एक रोज गुजर जाएगा
तेरे आने से जर्रा जर्रा तक निखर जाएगा

जब मेरी हसरतें नाकाम सदा सी लौटेंगी
जहन-ओ-दिल से ये खुदा का डर जाएगा

मुंतजिर कितना था ये दिल सहर के लिए
शब् भर जगा भी था, पर अब घर जाएगा

और तूफां कभी कोई ताउम्र नहीं टिकता
हौसलें गर हैं तो हर दरिया उतर जाएगा

वस्ल की रात को दोनों लिपट के रोयेंगे
समां आलम में ये फिर रात भर जाएगा

आंसुओं की फसलें अब हम उगाते नहीं
इस सहरा में भी मुस्काता शजर जाएगा

सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

बज्म -ऐ- दिल अब उसके नाम से चलती है


ये मेरी धड़कन बहुत एहतराम से चलती है
बज्म -ऐ- दिल अब उसके नाम से चलती है

वो आयेंगे मेरी आगोश में कौन सी शब् को
यही बात तो अब हर इक शाम से चलती है

फलक पे माह भी अब्र के साए में मिलता है
चौदहवीं की रात, जब वो बाम से चलती है

निगाहें साकी को वाइजों, इल्जाम ना देना
मयकशों की जिन्दगी तो जाम से चलती है

वो पूछ लेता है जब, बीमारों का हाल यूँ ही
सच है के ये नब्ज फिर आराम से चलती है

मोहब्बत के सिवा और अब फ़साने नहीं हैं
अपनी हर ग़ज़ल इसी कलाम से चलती है

अपने हमखारों की तुम खैर खबर लेते रहो
उम्र सारी ये 'राज' दुआ सलाम से चलती है

रविवार, अक्तूबर 18, 2009

अब ये आहें कब मेरी असर लाती हैं



अब ये आहें कब मेरी असर लाती हैं
दिल से निकलती हैं, बिखर जाती हैं

आप मर भी जाओ, अपनी बला से
वो मय्यत में भी बन-संवर आती हैं

हमे समझाती है निगाहें वाइज जो
कभी मैकदे पे वो भी ठहर जाती हैं

नामाबार को देखूं तो अब करूँ क्या
ख़त में वो इन्कार ही भिजवाती हैं

नजरों को भी कुछ काम तो चाहिए
एक से हटे तो दूजे पे ठहर जाती हैं

रविवार, अक्तूबर 11, 2009

काफिरों के हक में भी, एक दुआ रखना



काफिरों के हक में भी, एक दुआ रखना
तुम जब भी अपने जेहन में खुदा रखना

तेरा अक्स जो तुझसे रूबरू रखा करे यूँ
मेरे जैसा ही तू कोई फिर आईना रखना

मौसम कितना भी गमजदा क्यूँ ना मिले
बहारें लौटेंगी यही कायम हौसला रखना

शब् भर सहर के लिए मुन्तजिर ना होना
अपने पहलू में छुपा के, बादे-सबा रखना

सफ़र लम्बा बहुत है मंजिल आसाँ नहीं है
हो सके तो साथ अपने एक कारवाँ रखना

कौन सितम भी किसी पे, ताउम्र करता है
उसकी जफ़ाओं पे भी तू वफ़ा-वफ़ा रखना

बड़ा मासूम है जमाने की रस्में नहीं जाने
याद कभी तू ना उसकी कोई खता रखना

ये इश्क का मसला है, बहुत नाजुक सा है
मिलने जुलने में तुम जरा फ़ासला रखना

कत्ल करे भी तो उस से सवाल ना करना
नाम उसकी ये भी "राज" एक अदा रखना

गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

मेरी जानिब से जब भी बहार गुजरी है



मेरी जानिब से जब भी बहार गुजरी है
कर के दिल को बड़ा, बेकरार गुजरी है

वो हंस के रूबरू, हुआ जो कभी गैर से
के ये जिन्दगी फिर तार-तार गुजरी है

ना जाने क्यूँ घर में इक सन्नाटा सा है
शाम-ओ-सहर यूँ तो हजार बार गुजरी है

उसपे तोहमत ना लगे, इसलिए चुप हूँ
पर लबों पे वो दास्ताँ बेशुमार गुजरी है

शायद वो संग पिघल जाएगा अश्कों से
आँख नम करके यही इंतजार गुजरी है

उसने जफा करी है, जिस दम "राज" से
उम्र सारी फिर सबपे बे-ऐतबार गुजरी है

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

वो जो महफ़िल में हमसे कुछ परे बैठे हैं



वो जो महफ़िल में हमसे कुछ परे बैठे हैं
हम तो उनसे मिलने की आस धरे बैठे हैं

यूँ तो कभी होते नहीं वो हमख्याल हमसे
एक हम हैं जो जमाने से उनपे मरे बैठे हैं

हम तो शुमार करते हैं अजीजों में उनको
ना जाने क्यूँ वो हमसे अदावत करे बैठे हैं

के शायद किस्मत ही तंग है कुछ अपनी
सिवा हमारे ही यहाँ सब उनके वरे बैठे हैं

कभी तो होगा उनका रुख अपनी जानिब
यही इक ख्वाब"राज"आँखों में भरे बैठे हैं

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

कुछ मौसम के फ़साने की बात करो



कुछ मौसम के फ़साने की बात करो
कुछ अपने दिल दीवाने की बात करो

इश्क की बातें तो यूँ सब किया करे हैं
कुछ तुम अलग ज़माने की बात करो

हर एक इल्जाम सर मेरे कर के तुम
चुपके से निकल जाने की बात करो

गर सदा नाकाम लौटे उस दर से तो
काफिरों से हाथ उठाने की बात करो

मजबूर हालात हों, कोई साथ ना दे
कुछ गैरों से भी निभाने की बात करो

सन्नाटा गली के मोड़ तक फैलने लगे
तुम घर में चराग जलाने की बात करो

'हीरों' ने हमे कभी काबिल नहीं समझा
"राज" अब संग आजमाने की बात करो

बुधवार, सितंबर 23, 2009

तुम्हे छूकर गुलाब कर दूंगा


तुम्हे छूकर गुलाब कर दूंगा
पूरा हर एक ख्वाब कर दूंगा

तुम हिज्र में शिकवे लिख लेना
मैं वस्ल में सब हिसाब कर दूंगा

तुमको शौक है ना माह होने का
अमावस में ये भी खिताब कर दूंगा

जब भी ग़ज़ल में तारे लिखूंगा
तुमको उसमे माहताब कर दूंगा

नजर कहीं न मेरी ही लग जाए
अपने आँखों को नकाब कर दूंगा

खुशगवार लम्हों को तुम पढ़ा करना
जीस्त को मुक़म्मल किताब कर दूंगा

अपने जख्मो की यूँ दास्ताँ कह देना
मैं मरहम कोई लाजवाब कर दूंगा

गुरुवार, सितंबर 17, 2009

जब भी ख़त में मौसम लिखना



जब भी ख़त में मौसम लिखना
मुझको उसमे सावन लिखना

खुद को कुरबत सब दे देना
मुझे हिज्र का आलम लिखना

इश्क में तेरे बन बैठे पागल
बात यही तुम हरदम लिखना

बादे सबा जब चले शहर से
आँखे अपनी पुरनम लिखना

सबसे मिलना हंसते रहना
मेरे जानिब सब गम लिखना

लौटूंगा मैं इक रोज देखना
इन्तजार बस कायम लिखना

बुधवार, सितंबर 09, 2009

इक रोज उसे यूँ ही, सीने से लगा लूँ मैं




सोचा करता हूँ ये तोहमत भी उठा लूँ मैं
इक रोज उसे यूँ ही, सीने से लगा लूँ मैं

हलकी हलकी बूंदें जो फलक पे बरसी हों
उसको मिलने फिर, इक शाम बुला लूँ मैं

आलम पे अब्रों का, जब साया बिखरा हो
मौसम की बाहों से इक लम्हा चुरा लूँ मैं

नींद मुझे जब भी उसकी बांहों में आये
ख्वाब सुनहरे सब पलकों में सजा लूँ मैं

हवा के झोंके से जो उसकी खुशबू आये
गुलशन के गुल को हमराज बना लूँ मैं

'राज' जो दिल में हैं तुम सुनने ना आओ
गज़लों में ही दिल की हर बात बता लूँ मैं

बुधवार, सितंबर 02, 2009

देता हूँ हर घड़ी अब मैं दुआ उसको



देता हूँ हर घड़ी अब मैं दुआ उसको
उसने ना करी पर मिले वफ़ा उसको

तारीक-ऐ-शब् हासिल हो मुझी को
नसीमे सहर पर बख्शे खुदा उसको

कदर करो गर कभी रहे रूबरू तुमसे
बिछड़ेगा तो रहोगे देते सदा उसको

अहदें किसी से तुम ना किया करना
जब तक के यूँ पाओ ना निभा उसको

किसी से इश्क हो तो चुप नहीं रहना
थाम के कलाई बस देना बता उसको

लबों पे कभी कोई मुस्कान खिला दे
उसे दुआ करना कहना भला उसको

मौसम जो तुमसे कुछ यूँ रूठा बैठा है
सब्ज रुतो में 'राज' लेना बुला उसको

मंगलवार, अगस्त 25, 2009

शब् ने यूँ पलकें बिछा रखीं थी कल



शब् ने यूँ पलकें बिछा रखीं थी कल
शाम से ही हो रही इक जैसे ग़ज़ल

चाँद चुपके से नदी में आ गया था
महक उठा रौशनी से हर एक पल

मुझको भला क्यूँ सहरा कहता है
गर तू समंदर है तो मेरे साथ चल

मेरे हबीब मुझको कम समझते हैं
जानना हो तो, मेरा रकीब निकल

सब्र आता नहीं मुहब्बत में जिन्हें
भटकते हैं वो उम्र भर होके पागल

रविवार, अगस्त 23, 2009

कभी ख्वाबों की बात करता है



कभी ख्वाबों की बात करता है
कभी किताबों की बात करता है

सवाल होके भी वो मुझसे क्यूँ
अपने जवाबों की बात करता है

मौसमे सेहरा होता है फिर भी
खिलते गुलाबों की बात करता है

परिंदों के हक में फैसला कौन दे
सय्याद अताबों की बात करता है

अब्र के साए जब चाँद मिलता है
उसके हिजाबों की बात करता है

वाइज भी मयकदे में मिला था
तो क्यूँ सवाबों की बात करता है

जो मुल्क के गद्दारों में शामिल है
मुझसे इन्कलाबों की बात करता है

बुधवार, अगस्त 19, 2009

कांच सा उसका नाजुक नाजुक दिल लगता है



कांच सा उसका नाजुक नाजुक दिल लगता है
अब वो तो मुझको अपनों में शामिल लगता है

ज़ख्म भी देता है, और फिर दुआ भी करता है
जाने कैसा है वो, एक प्यारा कातिल लगता है

अक्सर मेरे ख्वाबों में यूँ आया जाया करता है
मेरी उम्मीदों का बस इतना हासिल लगता है

मैं खुद को बेखौफ सा बहता दरिया कहता हूँ
मेरी राहों को थामे, वो ऐसा साहिल लगता है

दिल अपने सब "राज" उसको सुनाया करता है
इस दुनिया में एक वो ही तो काबिल लगता है

रविवार, अगस्त 16, 2009

उसे बेसबब मेरी याद आई होगी


उसे बेसबब मेरी याद आई होगी
शाम ने जब सुर्खी बिखराई होगी

एक मैं ही नहीं शब् भर जागा था
उन आँखों ने भी नींद भुलाई होगी

हाथ आया होगा पुराना ख़त जब
पढ़के हर्फों को वो मुस्कराई होगी

हवा के झोंके की इक आहट पे भी
नजरें राहों तक उसने उठाई होगी

जिक्र जब भी चाँद का हुआ होगा
हौले हौले से वो भी शरमाई होगी

थम गयी होंगी उसकी बेचैन साँसें
मेरे आने की खबर जब पाई होगी

पलकें नम दिल बेकरार हुआ होगा
मेरी ग़ज़ल उसने जब सुनाई होगी

इक आइना ही था उसका महरम
हर बात उसको ही तो बताई होगी

बुधवार, अगस्त 12, 2009

हमको वो माहे-ईद का दीदार नजर आता है



हमको वो माहे-ईद का दीदार नजर आता है
चिलमन से जब तेरा रुखसार नजर आता है

इस झलक जो तेरी गर कोई देख ले कहीं से
उमर भर वो शख्स मयख्वार नजर आता है

निगाहे-नाज जो अपनी सेहरा पे डाल दो यूँ
वो सेहरा नहीं रहता गुलजार नजर आता है

लब पे जो चली आती है तबस्सुम हलकी-२
तो चमन का हर गुल शर्मशार नजर आता है

आती हो तुम जिसके ख्वाबों में रात रात को
ज़माने को दीवाना शबे बेदार नजर आता है

सजदा जिस रोज से वो करने लगे तुम्हारा
खुदा उस बंदे को फिर बेकार नजर आता है

तेरे हुस्न की तारीफ में अब और क्या कहें
के तेरे आगे हूर भी निगुंसार नजर आता है

खिजां की आँख भी नहीं उठती मेरी जानिब
जबसे "राज" तू रु-ऐ-नौबहार नजर आता है

शनिवार, अगस्त 08, 2009

'प्यारा पागल' खुशगवार हूँ मैं



बहुत बेबस बहुत लाचार हूँ मैं
तेरी दीद का, तलबगार हूँ मैं

तूने लाके जिस मोड़ पे छोडा
लगता के जैसे गुनहगार हूँ मैं

तेरे होने से आबाद हुआ था
आज उजड़ता सा दयार हूँ मैं

मेरी बेबसी कोई क्या समझे
दिल से कितना, बेजार हूँ मैं

उसकी यादें तो यूँ साथ हैं मेरे
पर दर्द की सहमी फुहार हूँ मैं

नहीं आएगी लौट के रुत वो
फिर भी एक इन्तजार हूँ मैं

मेरी वहशत हावी है मुझपे के
'प्यारा पागल' खुशगवार हूँ मैं

जिन्दगी जीने को सजा लगती है



जिन्दगी जीने को सजा लगती है
अब ये सब उसकी रजा लगती है

मैं मांगता हूँ वो भी नहीं मिलती
तंग मुझसे तो ये कजा लगती है

शब् के आगोश में सो जाऊं कैसे
नींद की गहराई बेवफा लगती है

तेरे जूनून के वहशी जाते किधर
जंजीरों की अच्छी सदा लगती है

खतावार हूँ मैं उस हमनफस का
जो कम उसको ये वफ़ा लगती है

यूँ तो मर मर के भी जी लेंगे ही
हमको तेरी ख़ुशी बजा लगती है

रविवार, अगस्त 02, 2009

वो...........



किसी शायर के ख्वाब जैसी है
वो एक खिलते गुलाब जैसी है

क्यूँ लोग संग कहते हैं उसको
वो तो दरिया के आब जैसी है

बड़ा आसान है तार्रुफ़ उसका
वो एक खुली किताब जैसी है

उसके दीदार से नशा छाता है
वो मयकदे की शराब जैसी है

सितारे देख के उसे शर्माते है
वो खुद एक माहताब जैसी है

कोई सवाल कैसे करे उस से
वो सुलझे हुए जवाब जैसी है

वो गुल है खुशबू है केसर की
वो वादियों में चनाब जैसी है

मौसमों में उसकी गुफ्तगू है
वो बहारों के आदाब जैसी है

हया के आईने भी रखती है
वो सरे बज्म नकाब जैसी है

शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

अच्छा लगता है



तुमको यूँ ही सताना अच्छा लगता है
रूठ जाती हो मनाना अच्छा लगता है

एक तुमको ही तो मैं अपना कहता हूँ
वादा तुमसे निभाना अच्छा लगता है

कोई नहीं यहाँ, जो दिल के जज्बे सुने
हर बात तुम्हे बताना अच्छा लगता है

जब भूलने लगती है ये दुनिया यूँ मुझे
तुम्हारा वो याद आना अच्छा लगता है

सरे राह मिलती हैं जब नजरे नजर से
दांतों से पल्लू दबाना अच्छा लगता है

छेड़ देता है जब अब्र जुल्फों के तार को
करीने से जूड़ा सजाना अच्छा लगता है

पलकों की नम कोरें यूँ, अच्छी लगती हैं
बेसबब कभी मुस्कराना अच्छा लगता है

इन्तजार का लुत्फ़ यूँ ही ले लेता हूँ मैं
किया वादा तेरा भुलाना अच्छा लगता है

सुना जब भी बातें तेरे अपनों का होतीं है
जिक्र मेरा उनमे उठाना अच्छा लगता है

चैन से सोने की बात तो करते हैं "राज"
पर ख्वाब में तेरा आना अच्छा लगता है

बुधवार, जुलाई 29, 2009

मैं और मेरा तन्हा चाँद



रात रात भर जगते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद
बेचैन बहुत हैं लगते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद

शब् से एक गुजारिश करते के, तू यूँ ही ना कट जाना
सहर के होने से डरते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद

मेरे दिल का आलम वो जाने, पीर मैं उसकी जाने हूँ
खामोशी में बातें करते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद

शाम ढले वो आ जाता है, बाम पे मुझसे मिलने को
एक दूजे पर हैं मरते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद

उसके संग सितारे हैं और, मेरे संग में रंगीं नजारे हैं
पर तन्हाई को सहते दोनों, मैं और मेरा तन्हा चाँद

सोमवार, जुलाई 27, 2009

जिधर देखते हैं बस तुझे ही उधर देखतें हैं



तेरे इश्क के बिस्मिल अब किधर देखते हैं
जिधर देखते हैं बस तुझे ही उधर देखतें हैं

ऐब तेरे हुस्न में अब एक नहीं मिलता हमे
जब भी देखतें हैं हम तो बस हुनर देखतें हैं

छलकता है जब अर्क जबीं से आरिज पे तेरे
हम उस दम आलम-ऐ-रुख पे गुहर देखतें हैं

अब तो मयखानों में दिल लगा नहीं करता
तेरे मयकश लबों से अपनी गुजर देखतें हैं

उनके पास भी इलाज नहीं दिल-ऐ-बीमार का
चारागर जब भी मेरा ये एक जिगर देखते हैं

अपने घर की छत पे आते तो हैं माहे ईद देखने
चाँद रहता है उधर मगर हम तेरे इधर देखतें हैं

वो दिन हमे ईद का दिन लगता है यूँ ही कभी
जिस रोज तुमसे मिलती अपनी नजर देखतें हैं

इंतजार की हद, क्या कहे "राज" अब तुमसे
के शाम से ही उठ उठ के बस सहर देखतें हैं

बुधवार, जुलाई 22, 2009

खुद को कुछ ऐसे भी आजमाता रहा


मैं रेत पर यूँ ही,एक घर बनाता रहा
खुद को कुछ ऐसे भी आजमाता रहा

कागजी फूलों से खुशबु नहीं आती है
जान के भी उन्हें मेज पे सजाता रहा

लौट आये वो शायद दुआ सुनकर ही
होके काफिर भी, मैं हाथ उठाता रहा

खुदा हो जाने का यकीन ना होने पाए
करके गुनाह ये वहम भी मिटाता रहा

दर्द जब अपनी हद पे पहुँच गया मेरा
रात भर आँखों से शबनम बहाता रहा

हवा की आहटें, जब पायलों सी लगीं
बेसबब दरवाजे तक आता जाता रहा

शनिवार, जुलाई 18, 2009

ये कारी-कारी कजरारी आँखें




ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें
सुरमे से हैं, कुछ यूँ सजी हुई
जग से जैसे, मतवारी आँखें

ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें

इनका झुकना, इनका उठना
बंद कली का हो जैसे खिलना
नजर डाल कर जब भौंरे देखें
बस शर्म से मारी मारी आँखें

ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें

ये चेहरे की भाषा, पढ़ लेती हैं
कुछ नए स्वप्न यूँ गढ़ लेती हैं
एक झलक गर देख लो इनको
होंगी तुम पर वारी वारी आँखें

ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें

खुशियों में खुश मिल जाती हैं
हो गम तो कुछ खिल जाती हैं
पर किसी से कुछ ना कहती हैं
होती अजब सी हैं बेचारी आँखें

ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें

सब राजों को अयाँ ये कर देंगीं
सब बातों को बयाँ ये कर देंगीं
मेरा दिल कोई क्या समझेगा
समझेंगी सिर्फ तुम्हारी आँखें

ये कारी-कारी कजरारी आँखें
लगती हैं, प्यारी प्यारी आँखें

बुधवार, जुलाई 15, 2009

कभी तुम भी अपना वादा निभाया करो




कभी तुम भी अपना वादा निभाया करो
मेरे याद करने से पहले याद आया करो

आँखें रात भर रास्ता तुम्हारा तकती हैं
किसी रोज ख्वाब में आके चौंकाया करो

बद्दुआ बेशक मुझे तुम यूँ ही करते रहना
इसी बहाने नाम मेरा लबों पे लाया करो

मुझको अब जख्म नयी बात नहीं लगते
वफ़ा की जो हो सजा आके सुनाया करो

बाम पे आता हूँ मैं बस तुम्हारी खातिर
ईद का ही सही माहताब बन जाया करो

गर शक हो तुमको मेरे इश्क के जज्बों पे
मांग के जान तुम मुझको आजमाया करो

सबा आयेगी तो बहार लाएगी जरुर "राज"
रौशनी बिखरेगी घर के ये पर्दे उठाया करो

बुधवार, जुलाई 08, 2009

रात भर मेरी ग़ज़ल कोई गुनगुनाया करता है




रात भर मेरी ग़ज़ल कोई गुनगुनाया करता है
मेरे ख्वाबों में यूँ ही बस, आया जाया करता है

सर झुकाया करता हूँ, तो ख्यालों में आता है
सर उठाया तो आईने सा, मुस्कराया करता है

मैं छोड़ देता हूँ, ये दीवारो-दर बे-तरतीब जब
घर मेरा कौन भला जागकर सजाया करता है

बड़ा दिलदार बेदिल है यारों मातम नहीं करता
मेरे वीराने को भी, अश्कों से महकाया करता है

एक रोज सोचता हूँ, छुप छुप के ये सब देख लूँ
कौन है जो ये चूडियाँ घर में खनकाया करता है

मेरी मायूसियों का बड़ा ख्याल रखता है "राज"
शाम ढलती है तो खुद चराग जलाया करता है

सोमवार, जुलाई 06, 2009

जो दर्द दे उसको भुला देना अच्छा




जो दर्द दे उसको भुला देना अच्छा
ज़ख्म हो जाए तो दवा देना अच्छा

और गर यादें नासूर बन जाएँ कभी
उनको दिल से ही मिटा देना अच्छा

तनहा रहके हासिल कुछ नहीं होता
शानो पे रखके सर बता देना अच्छा

जो थाम ले तेरे आरिज पे ढलके अश्क
हर वादा उस से ही निभा देना अच्छा

ये बहारें तेरे जानिब आने को बेताब हैं
अब तो घर के परदे उठा देना अच्छा

मुस्कराने का तुमको भी तो हक है'राज'
हंसी को अब लबों का पता देना अच्छा

मंगलवार, जून 30, 2009

अपनी इन ग़ज़लों में, उसकी जवानी रखता हूँ




उसके खूबसूरत अहसासों की कहानी रखता हूँ
अपनी इन ग़ज़लों में, उसकी जवानी रखता हूँ

आसमाँ सी चाहत तो है मुझे दूर तक जाने की
पर अपने क़दमों पे जमीं की निशानी रखता हूँ

और कुछ नहीं कहता आज भी मैं उनके सामने
अपने बुजुर्गों के लिए आँख में पानी रखता हूँ

दुश्मनों को दोस्तों से कभी कम नहीं आंकता
उनके लिए यह सोच अपनी सयानी रखता हूँ

कौन आएगा लेने टक्कर मुझसे मेरी जानिब
एक हाथ में कजा एक में जिंदगानी रखता हूँ

इश्क में बेवफाई करती रहे ये हक है उसको
वफादारी में खुद सा ना कोई सानी रखता हूँ

लाख सितम करे कोई पर उफ़ भी नहीं करता
अपने चेहरे की इबारत बस बेजबानी रखता हूँ

मेरे अहबाब मांग ले तू, मेरी जान किसी रोज
देख मैं क्या क्या जज्ब -ऐ -कुर्बानी रखता हूँ

पीता हूँ, बहकता हूँ, ये इनकार नहीं मुझको
घर की दरो दीवार मगर पहचानी रखता हूँ

तुम मेरी ग़ज़लों पे कभी भी दाद दो या न दो
अपने दिल में इज्जत तुमको पुरानी रखता हूँ

मुझे देखके मेरे अपने भी गमजदा न हो जाये
दिल में छुपा के 'राज' ग़मों की वीरानी रखता हूँ

रविवार, जून 21, 2009

सिवा इनके अंदाज शायराना नहीं आता




मैं इश्क करता हूँ पर जताना नहीं आता
दिल में रखता हूँ राज बताना नहीं आता

आँखों में हिज्र का सावन छुपा है कब से
रुत बदलती है मगर बरसाना नहीं आता

खता उसकी भी हो तो खामोश रहता हूँ
गिले शिकवे मासूम पे लगाना नहीं आता

उसको गुलाब कहता हूँ या चाँद कहता हूँ
सिवा इनके अंदाज शायराना नहीं आता

उसके दर पे सहर नहीं पहुँचती जब तक
अपने आँगन का चराग बुझाना नहीं आता

शनिवार, जून 13, 2009

इश्क में दिल हारने वाला



जागती आँखों में उसकी ख्वाब हुआ जाता है
इश्क में दिल हारने वाला कामयाब हुआ जाता है

अहमियत न दो तो ये एक कतरा भर ही है
समझो गर तो अश्क भी सैलाब हुआ जाता है

कैसी है आरजू ये, मेरी कैसी है ये तमन्ना
वो रूबरू भी रहे और दिल बेताब हुआ जाता है

गम हो गर उसे तो अपना सा लगता है वो भी
उसके चेहरे का तबस्सुम नायाब हुआ जाता है

कभी निकल जाती है वो जब बेनकाब बाम पे यूँ
हया में छुपती नाजनीन सा माहताब हुआ जाता है

रविवार, जून 07, 2009

मुझे मनाना नहीं आता....



तुम रूठ जाती हो तो मुझे मनाना नहीं आता
झूठ का खूबसूरत आईना दिखाना नहीं आता...

सच कहता हूँ तो तुम्हारी आँखे नम देखता हूँ
क्या सूरत करूँ मैं, तुमको बहलाना नहीं आता...

इक पागल हूँ, शायद लोग सच ही कहते हैं
गुनाह करता हूँ और मुकर जाना नहीं आता...

तुम हंस दो यही तमन्ना लिए फिरता हूँ
सिवा तुम्हारे मुझे मुस्कराना नहीं आता...

मेरे अल्फाजो को थोडी अहमियत तो दे दो
किसी और ढंग से मुझे जतलाना नहीं आता...