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मंगलवार, जनवरी 12, 2010

याद आ गया वो फिर शाम के ढलने से



याद आ गया वो फिर शाम के ढलने से
रौशनी हो गयी मेरी आँखों के जलने से

उसकी यादों के साये दिल में रह गए यूँ
हासिल ना कुछ हुआ घर के बदलने से

कुछ ऐसा तो नहीं मांग बैठा था मैं उससे
क्या होता दो कदम और साथ चलने से

ये हादसे भी कैसे यहाँ मेरे साथ होते रहे
अँधेरे ना कम हुए सहर के निकलने से

परिंदा रिहाई मांगता तो रहा सय्याद से
पर क़ज़ा कहाँ रही, सर उसके टलने से