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मंगलवार, नवंबर 29, 2011

बस बे-सबब यूँ ही फिरा करना




बस बे-सबब यूँ ही फिरा करना 
हमे भी नहीं है पता क्या करना 

हवा तेज़ है कुछ तूफ़ान भी है 
चरागों की हक में दुआ करना 

हमसे ना सही औरों से ही सही
पर यूँ किसी से तो वफ़ा करना 

देना नाम उसे ग़ज़ल का मगर 
लफ़्ज़ों में उसको लिखा करना 

दर्द समझोगे तब ही तुम मेरा 
मेरे जैसे कभी तो हुआ करना 

बस अपनों में शुमार कर लेते 
कब कहा बन्दे को खुदा करना 

घुटन भरी है जिन्दगी अपनी 
कुछ इधर बाद-ए-सबा करना 

तहरीर-ए-लब से हंसी लिखना 
अश्क आँखों से ना जुदा करना 

है ये इनायत इश्क के बुखार की




कुछ और नहीं, है ये इनायत इश्क के बुखार की 
के सभी कुछ हो मगर, जाए ना जान बीमार की 

मुहल्ले की हर खबर तो इन लुगाईयों के पास है 
क्या जरुरत रह जाए है फिर घर में अखबार की 

उसको भी शौक नहीं है अपना गाँव छोड़ देने का 
शहर में खींच लाती है बस ये वजह रोजगार की 

आज-कल तो चापलूसों का ही ज़माना रह गया 
कद्र ही कहाँ रह गयी है अब अच्छे फनकार की 

बुतों को पूजने वाले और नमाज़ी भी जानते हैं 
खुदा भी ना ले सकेगा जगह माँ के किरदार की 

सब मिलता है बाज़ार में बस यही नहीं मिलती 
दुआएं लेने की औकात नहीं किसी खरीददार की

मेरे लफ़्ज़ों की गहराइयों तक उतरे कौन भला 
सबको बातें मेरी लगती हैं बस यूँ ही बेकार की 

सन्नाटों में शोर उतर आया होगा जब



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सन्नाटों में शोर उतर आया होगा जब 
बाद मुददतों कोई घर आया होगा जब 

रौशनी ने कुछ दम भर साँस ली होगी 
चराग आंधी से गुजर आया होगा जब 

उसने कीमत में जिंदगी लगा दी होगी 
इश्क में वो सौदा कर आया होगा जब 

माँ के आँचल की छाँव याद आती होगी 
गाँव छोड़कर के शहर आया होगा जब 

लफ्ज़ सफहों पे नमी लेकर उतरे होंगे 
के अब्र यादों का इधर आया होगा जब 

हर आहट उसकी आमद लगती होगी 
नींद में उसका असर आया होगा जब 

चंद क़दमों के फासले मीलों लगे होंगे 
कोई तन्हा सा सफ़र आया होगा जब 

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

बाद मुद्दतों के जैसे अपने घर चले




बाद मुद्दतों के जैसे अपने घर चले
उनकी यादें जब हम छोड़ कर चले 

अदालत-ए-हुस्न में वो मुक़र चले 
वफ़ा के सब इल्जाम इस सर चले  

यूँ हम छोड़ दें ये हँसना-रोना तक 
अपने दिल पे इख्तियार गर चले 

यहाँ जज्ब बयानी ही करते रहे हैं 
इस ग़ज़ल में कब कोई बहर चले 

खुद ही बुझ थे गए चराग खामोश 
हवा सोचती रही, किस डगर चले 

मय ने आदतें बिगाड़ी है जिनकी  
उनपे नसीहतों का कब हुनर चले 

कब तलक यूँ इश्क का मातम हो 
जैसे भी है जिंदगी बस गुज़र चले 

कहें 'राज़' की सोहबत नहीं अच्छी 
बदनाम ही सही यहाँ नाम पर चले  

गुरुवार, नवंबर 10, 2011

ये ग़ज़ल मेरी....



दर्द-ओ-अलम का समाँ ये ग़ज़ल मेरी 
है मेरी तन्हाई की जुबाँ ये ग़ज़ल मेरी 

इसके हर मिसरे में छुपी रुदाद भी है 
मेरे ज़ख्मों का है निशाँ ये ग़ज़ल मेरी 

ये लफ्ज़ सुलगते हैं यादों में किसी की 
तो बनके उठती है धुआँ ये ग़ज़ल मेरी 

किसी महके ख्याल जैसी लगे है कभी 
है कभी खंडहर सा मकाँ ये ग़ज़ल मेरी 

बहार आयी ना हो आगोश में जिस के
उसी पतझर का है बयाँ ये ग़ज़ल मेरी 

'राज़' नासमझ को भी समझ लेना यूँ 
कहाँ मीर, ग़ालिब कहाँ ये ग़ज़ल मेरी 

बुधवार, नवंबर 02, 2011

जिस रोज़.....




तो आँखों में अश्क उतर आयेंगे उस रोज़ 

तेरी कोई ग़ज़ल लेकर आयेंगे जिस रोज़ 


हम उन्हें भी लफ़्ज़ों के पैकर में ढाल देंगे 

तेरी याद के नक्श उभर आयेंगे जिस रोज़ 


मेरे दोस्तों फिर बद्दुआ देना तुम मुझको 

इस दिल के ज़ख्म भर आयेंगे जिस रोज़ 


फिर रौशन होंगे यहाँ पे हौसलों के चराग 

रकीब लेके हवाएं इधर आयेंगे जिस रोज़ 


और माँ की दुआएं उसे याद आएँगी बहुत 

छोड़ कर के गाँव, शहर आयेंगे जिस रोज़ 


तब ''राज़'' की भी ईद-ओ-दिवाली मनेगी

भुलाकर रंजिशें वो घर आयेंगे जिस रोज़