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गुरुवार, जून 02, 2011

तेरी कुर्बत-ओ-रफ़ाक़त के ज़माने चले



तेरी कुर्बत-ओ-रफ़ाक़त के ज़माने चले
जेहन से जब कभी तुझको भुलाने चले 

दिन भर फिरे बेसबब ही परिंदा लेकिन 
लौटकर वो शाम अपने ही ठिकाने चले

इश्क के कारोबार का है ये हासिल देखो 
नफे में बस दर्द-ओ-गम के खजाने चले 

इक तेरे दर पे ही है तेरे बंदे को आसरा 
ऐ खुदा तू बता कहाँ अब ये दीवाना चले 

फिर से दोस्तों पे ऐतबार कर लिए हम 
लो के एक धोखा और फिर से खाने चले 

हमने कोई शिकवा ना गिला रखा उनसे 
हाँ, उनके ना आने के हज़ारों बहाने चले 

उसे तो रास ना आयी थी ये ग़ुरबत मेरी 
जाविदाँ मुहब्बत में ऐसे भी फ़साने चले 

अपनी 'आरज़ू' ही तो कही है तुमने 'राज़'
बस ग़ज़ल है ये नई,पर जिक्र पुराने चले