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शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

दर्द अपना कुछ मुख़्तसर निकला



दिल की बज़्म से हंस कर निकला 
दर्द अपना कुछ मुख़्तसर निकला 

जिसे अपने अजीजों में रखा मैंने 
खंज़र उसका ही पीठ पर निकला 

शब् यादों की तीरगी में कट गयी 
फिर माह क्या ता-सहर निकला 

तू नहीं गर तो तेरा ख्याल ही सही 
कोई तो अपना हमसफ़र निकला 

कुछ ख्वाब, वीरानी और वहशत 
यही सामान बस मेरे घर निकला 

देखीं थीं जिसने औरों में खामियाँ 
वो ''राज़'' खुद ही बे-बहर निकला