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मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

इक शाम उसकी आँखों से ढल रही होगी




इक शाम उसकी आँखों से ढल रही होगी
हिज्र की रातों में वो बहुत मचल रही होगी...

है नाजुक बदन वो कुछ जियादा ही फिर भी
गम के चराग में रौशनी सी जल रही होगी...

महफिल में बेवजह मेरे नाम के जिक्र पर
सर्द आहें उसकी बर्फ सी पिघल रही होगी...

ना पूछेगी मौसमो से बहारों का वो पता
सेहरा की गर्म रेत पे खामोश चल रही होगी....

के वक़्त भी उसके इन्तेज़ार में रुक गया होगा
और वो हर आहट पे घर से निकल रही होगी...

वो अल्फाज़




उसने जाते जाते
कह दिया था
कि
जल्दी आ जाना
कहीं
देर न हो जाए
''
''
''
''
शायद वो सच कह गयी
"
"
"
"
आज भी
मेरी लाचारी,
बेबस वक़्त,
और
वो अल्फाज़,
उसकी तस्वीर के
खूंटे से टंगे हैं