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रविवार, अगस्त 15, 2010

वो तो ख्वाबों में भी नजर नहीं आया


वो तो ख्वाबों में भी नजर नहीं आया 
ऐसा बिछड़ा, के लौट कर नहीं आया 

तमाम उम्र भटके हम मुंतजिर उसके 
वो गली नहीं आई,वो शहर नहीं आया 

शब् की सियाही में भी रही थी रौनक 
शफक ही बस इक मेरे दर नहीं आया 

ऐसा फंसा वो शहर की मुश्किलों में 
के माँ कहती रह गयी,घर नहीं आया 

जिसके शानों पे सर रख के रोते हम 
ज़माने में कोई ऐसा बशर नहीं आया 

सरे महफ़िल हम कहते, वाह-२ होती
तहरीर में अपनी वो हुनर नहीं आया 

मुहब्बत का शजर वफ़ा से सींचा तो था 
पर इन शाखों पे कभी समर नहीं आया 

खुदा की फेहरिस्त में शायद आखिरी था 
दुआओं में "राज" तभी असर नहीं आया