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रविवार, जून 24, 2012



के अक्ल लगती है ठिकाने से 
दुनिया भर के फरेब खाने से 

कुछ लोग हैं यहाँ सयाने से 
और कुछ हैं मुझ दीवाने से 

इक खटास सी आ जाती है 
यहाँ रिश्तों को आजमाने से 

ये मुहब्बत है कोई खेल नहीं 
वो ना समझेगी, समझाने से 

मुश्किलें जिंदगी की अजीब हैं 
और उलझती हैं, सुलझाने से 

मेरे ये लफ्ज़ खिल उठते हैं 
एक जरा तेरे मुस्कराने से 

सोच सोच के थक गया हूँ मैं 
चली आ, ना किसी बहाने से 

रुते-हिज्र में फर्क नहीं होता 
इन मौसमों के आने जाने से 

वो आरज़ू पूरी हो "राज़" की 
इक यही है आरज़ू जमाने से 

रविवार, जून 10, 2012



सुबह से चल निकले हैं, शाम तक पहुँच ही जायेंगे 
ये चाँद सितारे अपने मक़ाम तक पहुँच ही जायेंगे 

आप बस लफ़्ज़ों के जुगाली यूँ ही करते रहिएगा 
दो-चार अशआर तो अंजाम तक पहुँच ही जायेंगे 

अभी तो बज़्म में पहली ही मुलाक़ात हुयी है उनसे 
फिर से मिले तो दुआ-सलाम तक पहुँच ही जायेंगे 

ये इश्क के किस्से हैं, बदनाम कर देंगे हम दोनों को 
उसके नाम से चले हैं मेरे नाम तक पहुँच ही जायेंगे 




जब कभी भी हौसला तीरगी करने लगे 
लौ चरागों पे धर हम रौशनी करने लगे 

इसकी फितरत पर क्या भरोसा कीजिये 
जाने कब क्या फिर ये आदमी करने लगे 

हो गयी थी काबिज़ फलक पे शाम जब 
सब दरख्तों के परिंदे वापसी करने लगे 

बाद मुद्दत के घर को लौट आया कोई जब 
घर के दीवार-ओ-दर मौशिकी करने लगे 

ख़त मेरे यूँ ही फिर पढ़ लिया करना तुम 
जब परेशां तुम्हे तन्हाई-बेबसी करने लगे 

ज़मात-ए-इश्क में नाम अपना क्या लिखा 
हुज़ूर उस रोज़ से हम भी शायरी करने लगे 

औलिया की दरगाह पे जो क़दम अपने पड़े 
क्या गजब के काफिर भी बंदगी करने लगे