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शनिवार, दिसंबर 22, 2012

लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा...




लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा 
ये वक़्त रुका न, फिसलता रहा 

जिसने न की कभी क़दर इसकी 
वो उम्र भर बस हाथ मलता रहा   

गयी रुतें तो, वो पत्ते भी चल दिए 
सहरा में तन्हा शजर जलता रहा 

दोस्त समझ के जिसे साथ रखा 
आस्तीनों में सांप सा पलता रहा 

उसकी यादों की गर्मी में, बर्फ सा  
रोज कतरा कतरा मैं गलता रहा 

मंजिल की दीद हुई न कभी मुझे 
ता-उम्र मैं सफ़र पे ही चलता रहा 

उसके जाने का गम तो नहीं पर  
ना लौटने का वादा खलता रहा