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रविवार, जून 19, 2011

इश्क में यूँ हर शख्स पागल नहीं होता



अहसास तेरा मुझको जिस पल नहीं होता 
साँसों का सिलसिला मुक़म्मल नहीं होता 

बस तेरी सूरत ही रक्स करती हैं आँखों में 
दूसरा चेहरा तो इनमे आजकल नहीं होता 

उसे आसान लगा है मुझको भूल जाना पर  
वो है के मेरी सोच से भी ओझल नहीं होता 

आजार-इश्क की यूँ कोई दवा नहीं मिलती 
चारागारों से भी तो मसला हल नहीं होता 

जब आँखों से बे-सबब अब्र का कारवां चले 
रोकने का फिर उसे कोई आँचल नहीं होता 

"राज़" खामोश हैं, तो क्या है अजीब इसमें 
अरे इश्क में यूँ हर शख्स पागल नहीं होता 

मंगलवार, जून 14, 2011

कोई हौसला ऐ हवा ना कर....



कहता हूँ कोई हौसला ऐ हवा ना कर 
मेरे चराग को बे-सबब छुआ ना कर 

सुलग उठते हैं उदासी से सफहे कई 
आंसुओं से ग़ज़ल को लिखा ना कर 

गर तेरे बस में नहीं है दुआ ना सही 
तू मगर किसी को भी बद्दुआ ना कर 

उसकी फितरत है ज़फायें तो रहने दे  
कौन कहता है तुझसे तू वफ़ा ना कर 

ये सख्त लोग हैं कैफियत ना समझे  
होकर यूँ मासूम जहाँ में रहा ना कर 

नज़र लग जाए ना कहीं डर है बहुत 
आईने में खुद को इतना पढ़ा ना कर 

सुना माह की नीयत भी अच्छी नहीं 
तो छत पे तन्हा उससे मिला ना कर 

वक़्त से पहले कुछ मिलता ना कभी    
किस्मत से बे-वजह यूँ गिला ना कर 

खुदा तेरी भी सुनेगा इक दिन "राज़" 
लिए ''आरज़ू'' अपनी यूँ फिर ना कर 

सोमवार, जून 06, 2011

बगैर सितारों का चाँद आसमान में देखो



बगैर सितारों का चाँद आसमान में देखो
हूँ तन्हा अब मैं बहुत इस जहान में देखो 

कौन आये जो मुझको दुआएं किया करे 
पड़ गए हैं आबले सबकी जुबान में देखो 

के छोड़  कर अब तो तेरा शहर हम चले 
है दर्दो-गम और तन्हाई सामान में देखो 

हो गयी है इक सिफर सी अब ये जिंदगी 
आ गए हैं कितने सवाल इंतेहान में देखो 

देख कर भी वो ना देखने का बहाना करे 
हो चले हैं कई फासले दरमियान में देखो 

सिवा उसके किसी के ख्याल नहीं बसते 
कोई और नहीं रहता इस मकान में देखो 

किसी की याद में बरसा है ये अब्र टूट के  
पे लोग खुश हैं बारिश के गुमान में देखो  

और ''आरज़ू'' है के पूरी नहीं होती "राज़" 
कोई नुक्स ही होगा अपने बयान में देखो 

Note:-जौन एलिया साहब की एक ग़ज़ल की ज़मीं से.....

गुरुवार, जून 02, 2011

तेरी कुर्बत-ओ-रफ़ाक़त के ज़माने चले



तेरी कुर्बत-ओ-रफ़ाक़त के ज़माने चले
जेहन से जब कभी तुझको भुलाने चले 

दिन भर फिरे बेसबब ही परिंदा लेकिन 
लौटकर वो शाम अपने ही ठिकाने चले

इश्क के कारोबार का है ये हासिल देखो 
नफे में बस दर्द-ओ-गम के खजाने चले 

इक तेरे दर पे ही है तेरे बंदे को आसरा 
ऐ खुदा तू बता कहाँ अब ये दीवाना चले 

फिर से दोस्तों पे ऐतबार कर लिए हम 
लो के एक धोखा और फिर से खाने चले 

हमने कोई शिकवा ना गिला रखा उनसे 
हाँ, उनके ना आने के हज़ारों बहाने चले 

उसे तो रास ना आयी थी ये ग़ुरबत मेरी 
जाविदाँ मुहब्बत में ऐसे भी फ़साने चले 

अपनी 'आरज़ू' ही तो कही है तुमने 'राज़'
बस ग़ज़ल है ये नई,पर जिक्र पुराने चले