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रविवार, अक्तूबर 31, 2010

शाम फिर से मुस्कराने लगी


शाम फिर से मुस्कराने लगी 
उसकी याद जब यूँ आने लगी 

चराग खुद-ब-खुद ही जल उठे 
रौशनी उसे ही गुनगुनाने लगी 

संदली हवा छूके उसके गेसू चली 
सारा आलम घटा महकाने लगी 

रुख से जो उसके आँचल ढलका  
शब् जुगनुओं सी शरमाने लगी 

हंस पड़े थे चमन के फूल सारे 
होठों पे हंसी जो लहराने लगी 

रक्स करता हुआ जर्रा-२ मिला 
वो पाजेब जो छमछमाने लगी 

शुक्रवार, अक्तूबर 29, 2010

क्या मांगू खुदा से जिंदगी के लिए


मिल जाए बस सुकून दो घडी के लिए 
और क्या मांगू खुदा से जिंदगी के लिए 

क्यूँ मुझे वो काफिर का नाम दे देती है 
उसको ही दिल में रखा है बंदगी के लिए 

वो नादान क्या समझे है मोल इसका 
उसे दिल चाहिए बस दिल्लगी के लिए 

दश्तों का सफ़र लिखा है नसीब में गर 
मंजिल नहीं होती उस आदमी के लिए 

सबके लबों पे जिसने तबस्सुम सजाए 
आता नहीं है कोई उसकी ख़ुशी के लिए 

" राज़ " क्या जाया करें मयकदों में अब 
यहाँ अश्क ही काफी हैं मयकशी के लिए 

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

तेरे बगैर.......


बेनूर हर आलम तेरे बगैर 
बेबस सा मौसम तेरे बगैर 

हकीकत क्या फ़साना क्या 
ना ख़ुशी ना गम तेरे बगैर 

चमन में ना रंगों-बू कोई 
गुल ना शबनम तेरे बगैर 

अब हर शय में शक्ल तेरी 
कैसा हुआ भरम तेरे बगैर 

क्या ग़ज़ल क्या नज़्म कहें 
ना लफ़्ज़ों में दम तेरे बगैर 

रुते-हिज्र में तो रोया किये 
सुबहो-शाम हम तेरे बगैर 

अब तमन्ना क्या और करें 
बची जिंदगी कम तेरे बगैर 

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

मुलाकातों का पर सिलसिला रखिये


हमसे जफा रखिये या वफ़ा रखिये 
मुलाकातों का पर सिलसिला रखिये 

काफ़िर हैं जो उनको रहने दीजिये 
अपने जेहन में आप तो खुदा रखिये 

शजर के तले जो अँधेरा उतरने लगे 
घर में बस चराग इक जला रखिये 

दिल तोड़ कर के हँसता है बहुत 
अरे नादान है वो खता भुला रखिये 

और रकीब भी हमारे सलामत रहें
जब भी रखिये ये ही दुआ रखिये 

वो भी किसी की माँ, बहन, बेटी है 
सड़क पे चलिए, सर झुका रखिये 

बुढ़ापे में बहुत काम आएगा यारों 
खुद की खातिर भी कुछ बचा रखिये 

किसी पे लगाने से पहले इल्जाम 
अपनी नज़रों में इक आईना रखिये 

उनके मुन्तजिर रहिये ना रहिये 
वादे पे "राज" ऐतबार बना रखिये

शनिवार, अक्तूबर 16, 2010

वो तस्सवुर में हमारे जो आये होंगे


वो तस्सवुर में हमारे जो आये होंगे 
हम बेसबब ही फिर मुस्कराये होंगे 

हवाओं में कैसी खुशबू की लहर उठी 
शायद उसके गेसू कहीं लहराये होंगे 

पायलों के साज़, चूड़ियों के तरन्नुम
सबने बज़्म में नगमे, मेरे गाये होंगे 

अंगडाईयों के वो खुशनुमा तबस्सुम 
शब्-ए-आलम पे नई सहर लाये होंगे 

बर्क-जदा रहती है शोख नजर उनकी 
जिधर डाली होगी शोले भड़काये होंगे 

कोहसारों से क्या ये रिसा है आब सा 
छू के उसने शायद संग पिघलाये होंगे 

मासूम चेहरे पे हैं हजारों तजल्लियां 
आईना देख के खुद भी शरमाये होंगे 

क्या बयां करे तारीफ में 'राज़' तुमसे 
काफिर भी सजदे में सर झुकाये होंगे 

गुरुवार, अक्तूबर 14, 2010

उसपे अब भी मेरा ऐतबार काफी है


उसपे अब भी मेरा ऐतबार काफी है 
इस दिल को भी इंतज़ार काफी है 

मेरे बदन पे ज़ख्मो का सिलसिला 
इश्क में इक यही यादगार काफी है 

ईद और चाँद नज़र आये ना आये 
माशूक का अपनी दीदार काफी है 

ना आज़मा हौसला सितमगर मेरे 
तुझे क्या पता सब्रो-करार काफी है

जफा करके वो भी तो रोया है यारों 
चलो हुआ इतना शर्मसार काफी है

मेरी खातिर अब ऐ चरागारों मेरे 
गम की ये फसल-ए-बहार काफी है 

बुधवार, अक्तूबर 13, 2010

उसकी चूड़ियाँ खनकती बहुत हैं


मैं इस डर से उसका हाथ नहीं थामता 
हैं जो उसकी चूड़ियाँ खनकती बहुत हैं 

वो चाँद शरमा के गिर ना पड़े यूँ कहीं 
जुल्फों की घटायें कुछ बहकती बहुत हैं 

सुना भाभी की नाक है तेज ज्यादा और 
उसके जूड़े की कलियाँ महकती बहुत हैं 

तभी रात ढलने तक छत पे बुलाता नहीं 
कमबख्त मुयी पायलें छनकती बहुत हैं 

ये भी सच के हैं उसकी आँखें बेचैन बड़ी 
बस मुझे ही देखने को मचलती बहुत हैं

किस्मत का लिखा कुछ नहीं होता


किस्मत का लिखा कुछ नहीं होता 
कहने से खुदा खुदा कुछ नहीं होता 

अपनी अपनी फितरत है इंसान की 
करना वफ़ा या जफा कुछ नहीं होता 

घर की ग़ुरबत में भी सुकून रखिये 
जिंदगी में और बजा कुछ नहीं होता 

जिसकी सीरत यहाँ खुबसूरत बहुत 
उसके लिए आईना कुछ नहीं होता 

पैसा नहीं, कमाना है तो नाम कमा
रोज-ए-अज़ल बचा कुछ नहीं होता 

जो रखते हैं जिगर फौलाद का यहाँ पे 
उनको जमीं--आसमाँ कुछ नहीं होता  

मंदिर मस्जिद की छोड़ दे बातें अब 
किसी का उनसे भला कुछ नहीं होता 

वो कभी ना कभी तो मान जायेंगे ही 
बस उनसे दिल लगा, कुछ नहीं होता 

उब जाना जब उस महफ़िल से "राज़" 
तो कह देना अलविदा कुछ नहीं होता 

रविवार, अक्तूबर 10, 2010

मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा


मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा 
फिर भी मैं तो बड़ा मस्त कलंदर रहा 

ये सोच के इश्क में हार जाया किये थे 
के कब जीतकर भी खुश सिकंदर रहा 

जाने क्या रंजिश बादलों की रही हमसे 
के सारा शहर भीगा घर मेरा बंजर रहा 

वो तेरा हाथ छुड़ाना और ख़ामोशी मेरी 
ता--उम्र आँखों में बस यही मंजर रहा 

जब भी नफे नुकसान का हिसाब देखा 
मेरी पीठ पे, मेरे अपनों का खंजर रहा  

तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए


तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए 
कभी खुशनुमा सहर, कभी दिन सुहाना चाहिए 

खुद हो क्या बेक़सूर जो उठाते हो तुम उँगलियाँ 
तो यूँ नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहिए 

रिश्तों की शाखों पे ऐसे नहीं समर लगा करते हैं 
कभी तुम्हे भी तो हमारे घर आना-जाना चाहिए 

अपने हालात तुमसे मैं और बयां करूँ कैसे यारों 
भटक रहा हूँ सेहरा में, बस इक ठिकाना चाहिए 

इस जहाँ में अब बसर नहीं होगी ऐ मासूम तेरी 
यहाँ तो जीने की खातिर इंसान सयाना चाहिए 

इश्क का कारोबार तो बड़ा पेचीदा हो गया यहाँ 
दिल हार जाना चाहिए औ नफ़ा कमाना चाहिए 

अरे, मरीज-ऐ-इश्क है ये ''राज़'' उसे दवा ना दो 
उसको तो साथ रिन्दों का और मयखाना चाहिए 

चले आना.....


सेहरा में बन कर तुम फुहार चले आना 
करेंगे फिर इश्क का कारोबार चले आना

जो गम ज़माने में गर दे जाए तुम्हे कोई
ना सोचना कभी तुम एक बार चले आना

और थक जाओ कभी हमसा ढूंढ़ते--ढूंढ़ते
मिलेंगे वँही करते हम इंतज़ार चले आना

मुझे मालूम है तन्हा जीना यूँ आसान नहीं 
जिंदगी का सफ़र हो जाए दुश्वार चले आना

ये चाँद मुआ देखकर तुम्हे भरता है आहें 
छत पे हो उससे जरा होशियार चले आना 

मेरे शानो पे रखके सर सुकूँ पा लेना तुम 
जहन-ओ-दिल हो जब बेक़रार चले आना

कभी"राज़"जो तुम्हे सोचे यूँ ही तन्हाई में 
होकर तुम खुशनुमा इक बहार चले आना 

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

मुश्किल-ए-जीस्त जब यूँ ही रवाँ होने लगी


 मुश्किल-ए-जीस्त जब यूँ ही रवाँ होने लगी 
ऐ अज़ल अब तू बता क्यूँ मेहरबाँ होने लगी 

वहशते-इश्क़ से फिर हम भी निकलने लगे 
जह्नो-दिल से याद जो उनकी धुआँ होने लगी 

जुस्तजू-ए-सुकूँ में जब दिन सारा कट गया 
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी 

शक्लो-सूरत थी नहीं, मैकप किया लाख का 
खाक को भी अब देख लो आसमाँ होने लगी 

लब हमारे चुप रहे औ उसने भी कुछ ना कहा 
राज़ की हर बात पर आँखों से अयाँ होने लगी 

बज़्म में हमने जब यूँ जिक्र उसका कर दिया 
यार सब कहने लगे,नज़्म जाविदाँ होने लगी 

बारिश-ए-हिज्र देखो दोनों जानिब खूब बरसी 
कुछ यहाँ होने लगी फिर कुछ वहाँ होने लगी 

"राज"तो बेबस रहे अब ये किसकी सुनते फिरें 
जंग दिल और धडकनों के दरमियाँ होने लगी

ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो


ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो
अरे ये कम नहीं कि इंसान हूँ, मुझे इंसान समझो

और जिसके दिल में छुपी होती है सच्ची इबादत
उसे पत्थर में भी मिलता है फिर भगवान् समझो

रखो नीयत पाक और बढाओ भाई -चारे को तुम
इंसानियत को  तुम अपना दीन-ओ-ईमान समझो

नहीं तकसीम है करी इस कायनात ने भी यहाँ
तुम क्यों बाँटते हो मजहब में ऐ नादान समझो

मजलून पे हो जुल्म और खामोश रह जाते हो तुम
फिर भला क्यूँ खुद को मुल्क का सायबान समझो

माना की तल्ख़ होकर कह जाते हो तुम बहुत कुछ 
पर जेहन में जो बसे, वो है मीठी जुबान समझो 

नहीं होती बसर इंसान की कभी इंसान के बगैर 
जिंदगानी है मुश्किल डगर ना इसे आसान समझो

दो लफ्ज़ प्यार के दिन में बस तुम बोल लो गर सबसे
बाँच ली फिर तो तुमने यहाँ गीता-ओ -कुरान समझो

ये सच है, ऐ बज़्म, तुम्हे नहीं पसंद हैं '' राज ''
चलो फिर समझो पागल, वहशी या बदगुमान समझो 

फिरता हूँ अब मैं दर-ब-दर तन्हा


फिरता हूँ अब मैं दर-ब-दर तन्हा
जब से हुआ है मेरा ये घर तन्हा 

वो तो अपनी यादें भी ले कर गया 
कर गया मुझको इस कदर तन्हा  

मौसमे-हिज्र में शाखों पे गुल नहीं 
कैसे करे अब निबाह शजर तन्हा 

कोई गमख्वार नहीं मिलता मुझे 
हो गया जैसे अपना ये शहर तन्हा 

मंजिल का पता न सफ़र का निशाँ 
मिलती है हर इक रहगुजर तन्हा 

वक़्त-ए-रुखसत दोनों रोये बहुत 
थम गया लम्हा रुकी गज़र तन्हा 

कोई आये कफस से आज़ाद करे 
तकती हैं बुलबुलों की नज़र तन्हा 

साकी जिस मयकदे का रूठ गया 
हुई रिंदों की शाम-ओ-सहर तन्हा 

'' राज '' जज्ब की बयानी करें कैसे 
ये ग़ज़ल तन्हा इसकी बहर तन्हा