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गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो


ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो
अरे ये कम नहीं कि इंसान हूँ, मुझे इंसान समझो

और जिसके दिल में छुपी होती है सच्ची इबादत
उसे पत्थर में भी मिलता है फिर भगवान् समझो

रखो नीयत पाक और बढाओ भाई -चारे को तुम
इंसानियत को  तुम अपना दीन-ओ-ईमान समझो

नहीं तकसीम है करी इस कायनात ने भी यहाँ
तुम क्यों बाँटते हो मजहब में ऐ नादान समझो

मजलून पे हो जुल्म और खामोश रह जाते हो तुम
फिर भला क्यूँ खुद को मुल्क का सायबान समझो

माना की तल्ख़ होकर कह जाते हो तुम बहुत कुछ 
पर जेहन में जो बसे, वो है मीठी जुबान समझो 

नहीं होती बसर इंसान की कभी इंसान के बगैर 
जिंदगानी है मुश्किल डगर ना इसे आसान समझो

दो लफ्ज़ प्यार के दिन में बस तुम बोल लो गर सबसे
बाँच ली फिर तो तुमने यहाँ गीता-ओ -कुरान समझो

ये सच है, ऐ बज़्म, तुम्हे नहीं पसंद हैं '' राज ''
चलो फिर समझो पागल, वहशी या बदगुमान समझो 

2 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब कर दिया है आपने ... लाजवाब ग़ज़ल है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी ही अच्छे शब्दों का चयन
    और
    अपनी सवेदनाओ को अच्छी अभिव्यक्ति दी है आपने.

    जवाब देंहटाएं

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