शब् के साए से निकलना चाहता है
चराग शाम से ही जलना चाहता है
ख्वाब की तासीर बहुत कम रही है
अब हकीकत में बदलना चाहता है
जब तय्य्खुल में जिक्र माजी का हो
आँख से दरिया पिघलना चाहता है
वस्ल के लम्हों से रहा था ये गिला
क्यों वक़्त जल्दी ढलना चाहता है
ऐसा नहीं के मेरी आदत नहीं रहीं
वो पर मेरे बगैर चलना चाहता है
गम से महरुमियत यूँ तो नहीं उसे
पर ''राज़'' यूँ ही बहलना चाहता है