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मंगलवार, नवंबर 24, 2009

लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए



लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए
ये शब सुर्ख बहुत है अब सहर चाहिए

क़त्ल करके भी वो कातिल रोता फिरे
अपने इश्क में कुछ ऐसा हुनर चाहिए

रुदादे गम कुछ यूँ सबसे कह देना तुम
के नम आँखें लिए हर इक बशर चाहिए

जो आंधियां भी आयें तो सहमी सी फिरें
आँगन में मुझको बेख़ौफ़ शजर चाहिए

ले-ले कर हिचकियाँ दम निकले उनका
यादों में अपनी कुछ ऐसा असर चाहिए

हमारे रकीबों से उनकी बनती है तो बने
पर हमसे ही धड़के उनका जिगर चाहिए

यक-ब-यक 'राज' जो कभी चार हो जाएँ
झुक जाएँ फिर शर्म से, वो नजर चाहिए.

शनिवार, नवंबर 14, 2009

इश्क में कुछ यूँ दिल पे असर होता है


इश्क में कुछ यूँ दिल पे असर होता है
शब् का आलम भी जैसे सहर होता है

तूफां से गुजरता है जब बेखौफ शजर
तब जाके कहीं शाखों पे समर होता है

तू क्या कहती है के, मैं जुदा हूँ तुझसे
चोट लगती है तुझे, दर्द इधर होता है

मिलते हैं कभी किताबों में गुलाब तेरे
रात भर फिर खुशबू का सफ़र होता है

मुहब्बत गुनाह ऐसा है, के उम्र भर रहे
बस कभी तेरे तो कभी मेरे सर होता है

कैसे यकीन मैं खुद की किस्मत पे करूँ
मुझे हर घडी तुझे खोने का डर होता है

सच है के सुकूँ बहुत मिलता है जान के
हिज्र का मातम जो अब तेरे घर होता है

रविवार, नवंबर 08, 2009

दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी


दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी
गुलिस्ताँ से रूठ कर जब बहार चल पड़ी थी

आसमाँ तलक मुझे बस सन्नाटा ही मिला
नजर होके जब घर से बेकरार चल पड़ी थी

आँखों में बेसबब ही ख्वाब आते जाते रहे थे
वो नजर करके कैसा कारोबार चल पड़ी थी

जाने क्या जिद के चराग जलता रहा घर में
ये हवा तो उसकी जानिब तैयार चल पड़ी थी

शहर का शहर अजनबी सा लगने लगा मुझे
चंद लम्हें क्या वो साथ में गुजार चल पड़ी थी

हयात से कभी कोई गुजारिश नहीं थी "राज"
तो वो भी देके, इश्क ऐ आजार चल पड़ी थी.