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मंगलवार, अगस्त 25, 2009

शब् ने यूँ पलकें बिछा रखीं थी कल



शब् ने यूँ पलकें बिछा रखीं थी कल
शाम से ही हो रही इक जैसे ग़ज़ल

चाँद चुपके से नदी में आ गया था
महक उठा रौशनी से हर एक पल

मुझको भला क्यूँ सहरा कहता है
गर तू समंदर है तो मेरे साथ चल

मेरे हबीब मुझको कम समझते हैं
जानना हो तो, मेरा रकीब निकल

सब्र आता नहीं मुहब्बत में जिन्हें
भटकते हैं वो उम्र भर होके पागल