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बुधवार, अगस्त 11, 2010

वक़्त कैसा भी हो निकल जाता है


वक़्त कैसा भी हो निकल जाता है 
संग भी एक रोज पिघल जाता है 

सलीके से मिला करो उस से तुम 
खुदा भी अपने रंग में ढल जाता है 

वो मेरे साथ क्या चल देती है जरा 
ये जमाना कमबख्त जल जाता है 

हौसला बाजुओं में हो जिनके यहाँ 
तूफां भी उनसे रुख बदल जाता है 

क्या मिलाएगा अब आँख मुझसे वो 
बेवफा है, मुँह छुपा निकल जाता है

बर्क उमर भर नही होती फलक पे 
बरसात हुई के सावन टल जाता है 

"राज" समझेगा कभी वो भी जज्बे 
इसी भरोसे पे ही आजकल जाता है

रब याद आया.....


तेरा मिलना--बिछड़ना सब याद आया
तेरा नाम लिया तो फिर रब याद आया

जिसके लिए आँखों में था रतजगा हुआ 
वो तेरी ही याद थी मुझे अब याद आया

नाम तेरा बस गया हो दिल में जिनके 
उन काफिरों को खुदा कब याद आया 

नहीं समायी थी तेरी सूरत उसमे कहीं 
आईना चटकने का वो सबब याद आया 

लगा बैठे थे तुम गैर की मेहँदी पावों में 
मुझसे किया वादा तुम्हे तब याद आया 

"राज" ग़ज़लों में अपने जज्बे कह गए 
किताब का सूखा गुलाब जब याद आया