वक़्त कैसा भी हो निकल जाता है
संग भी एक रोज पिघल जाता है
सलीके से मिला करो उस से तुम
खुदा भी अपने रंग में ढल जाता है
वो मेरे साथ क्या चल देती है जरा
ये जमाना कमबख्त जल जाता है
हौसला बाजुओं में हो जिनके यहाँ
तूफां भी उनसे रुख बदल जाता है
क्या मिलाएगा अब आँख मुझसे वो
बेवफा है, मुँह छुपा निकल जाता है
बर्क उमर भर नही होती फलक पे
बरसात हुई के सावन टल जाता है
"राज" समझेगा कभी वो भी जज्बे
इसी भरोसे पे ही आजकल जाता है