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शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

शब् के साए से निकलना चाहता है


शब् के साए से निकलना चाहता है 
चराग शाम से ही जलना चाहता है 

ख्वाब की तासीर बहुत कम रही है 
अब हकीकत में बदलना चाहता है 

जब तय्य्खुल में जिक्र माजी का हो 
आँख से दरिया पिघलना चाहता है 

वस्ल के लम्हों से रहा था ये गिला 
क्यों वक़्त जल्दी ढलना चाहता है

ऐसा नहीं के मेरी आदत नहीं रहीं 
वो पर मेरे बगैर चलना चाहता है 

गम से महरुमियत यूँ तो नहीं उसे  
पर ''राज़'' यूँ ही बहलना चाहता है

गुनाह था मेरा होना इंसां की जात


ता-उम्र मेरे साथ होते रहे हादसात 
गुनाह था मेरा होना इंसां की जात 

सिसकते हुए सारे चराग बुझ गए 
जाने किस खौफ से गुजरी ये रात 

इश्क की बिसात का था ये हासिल 
हर चाल में मिली मात-मात-मात 

अपने हर्फों में कैसे उतारूँ मैं इसको
मुख़्तसर नहीं ये किस्सा-ए-हयात

गम में भी कोई यूँ मुस्कराए फिरे 
हर किसी को आसाँ नहीं है ये बात 

मंजर-ए-पुरकैफ का दीदार नहीं है 
हजारों गम लिए मिली है कायनात 

बुधवार, दिसंबर 22, 2010

शाम के साए में कोई बादल जैसे


शाम के साए में कोई बादल जैसे 
उसके शानों पे उलझा आँचल जैसे 

सुर्खी फलक पे थी काबिज कुछ यूँ 
गिरा हो उन आँखों से काजल जैसे 

वो खूबसुरत बदन संगमरमरी, वाह 
लगता है पैरहन कोई मलमल जैसे 

उसकी साँसों से हवा यूँ महकी हुई 
घुल गया हो मौसम में संदल जैसे 

सरे बज़्म जिसपे पड़ें नजरें नशीली 
फिरे हर बशर होकर के पागल जैसे 

सोमवार, दिसंबर 20, 2010

तेरे बगैर.....


तन्हा तन्हा सा हुआ हर मंजर तेरे बगैर 
वीरान सा दिखता है अब ये घर तेरे बगैर 

जर्द जर्द सा है मौसम, घटाएं सीली सीली 
धुंआ धुंआ सी लगे है शामो सहर तेरे बगैर

फलक पे चाँद तारों का निशाँ नहीं मिलता
सब खाली खाली सा आता नज़र तेरे बगैर 

गिला किससे करें किसको गम कहें अपना 
हंसती रहती है बस ये चश्मे-तर तेरे बगैर 

सहरा सा हो चला अब तो आलम ये सारा 
कहीं गुल है, ना समर, ना शजर तेरे बगैर 

बेसबब ही भटकते हैं अब तो यहाँ वहां हम 
हावी वहशत है जेहन पे इस कदर तेरे बगैर

गुरुवार, दिसंबर 16, 2010

किसी सहर की ताजगी तुम हो


किसी सहर की ताजगी तुम हो 
गुलों की हसीन सादगी तुम हो 

नहीं जाता मैं सजदे में कहीं पे 
मेरा खुदा तुम हो बंदगी तुम हो 

मेरे तरन्नुम पे रक्स करती हुई 
अब ख्यालों की मौशिकी तुम हो 

यूँ ही नहीं गुम तुम्हारे प्यार में 
मेरी अहद-ए-आशिकी तुम हो 

सांस भी लूँ तो तुम्हारा ख्याल आये 
लगता है के जैसे जिन्दगी तुम हो 

शुक्रवार, दिसंबर 10, 2010

कभी अपने डर से निकला करो


कभी अपने डर से निकला करो 
बे-सबब ही घर से निकला करो 

हम तो हाथ थाम लेंगे तुम्हारा 
इस भरोसे पर से निकला करो 

सिवा दर्द के ये कुछ नहीं देता 
यादों के सफ़र से निकला करो 

गैरों से रख लो तर्के-ताल्लुक 
मेरे भी इधर से निकला करो 

रात में तुम जुगुनू बनकर अब 
अंधेरों के शहर से निकला करो 

इश्क की राहें इतनी आसान नहीं
मियां थोडा सबर से निकला करो 

"राज़" कभी ख्याल भी समझो 
ग़ज़ल-ओ-बहर से निकला करो 

गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

अंदाज-ए-बयां और भी शायराना रहता है




अंदाज-ए-बयां और भी शायराना रहता है 
जब उनकी याद और दर्द का ज़माना रहता है 

मेरी आँखें यूँ ही छलक पड़ती हैं अचानक 
जेहनो-दिल में जब कोई लम्हा पुराना रहता है 

मेरे हर्फों में नया कुछ तो होता नहीं अब 
हाल ज़ख्मों का ही बस अपने सुनाना रहता है 

जाने कैसी है खुदा की हमपे ये इनायत 
बर्क की नज़रों में मेरा ही आशियाना रहता है 

दर्द की जब भी बढ़ जाती हैं यूँ ही लज्जतें 
आलमे-वहशत में फिर हर इक दीवाना रहता है 

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

जिन्दगी.....



जाने कैसी है ये बेरंग जिन्दगी 
चाहता हूँ बस तुम्हारे संग जिन्दगी 


ना सलीका है कोई ना तरीका है 
कट रही है यूँ ही बेढंग जिन्दगी  


मैं इससे और ये है मुझसे उलझी हुई 
ख्यालों से मेरे हुई अब तंग जिन्दगी 


किसी मोड़ पर जीत तो हार है कभी 
उम्र भर को रहेगी क्या जंग जिन्दगी 


ना जाने कब कहाँ ये डोर टूट जाए 
फलक पे उडती जैसे कोई पतंग जिन्दगी 


कोई ख्वाहिश न कर अब इससे 'राज' तू 
काट ले बस यूँ ही होके मलंग जिन्दगी