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गुरुवार, दिसंबर 16, 2010

किसी सहर की ताजगी तुम हो


किसी सहर की ताजगी तुम हो 
गुलों की हसीन सादगी तुम हो 

नहीं जाता मैं सजदे में कहीं पे 
मेरा खुदा तुम हो बंदगी तुम हो 

मेरे तरन्नुम पे रक्स करती हुई 
अब ख्यालों की मौशिकी तुम हो 

यूँ ही नहीं गुम तुम्हारे प्यार में 
मेरी अहद-ए-आशिकी तुम हो 

सांस भी लूँ तो तुम्हारा ख्याल आये 
लगता है के जैसे जिन्दगी तुम हो 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर गज़ल .. कल शुक्रवार १७-१२-२०१० को आपकी यह रचना चर्चामंच पर होगी .. आप वहाँ भी अपने विचार दें और अन्य रचनाओ को पढ़ें .. http://charchamanch.blogspot.com

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  2. बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...

    जवाब देंहटाएं
  3. आप सभी का बहुत बहुत आभार....हौसला और वक़्त देने के लिए.....
    समयाभाव के कारण ज्यादा नहीं आ पात हूँ.. कई रचनाये रचनामंच पे भी शामिल हुईं.
    इस हेतु स्सभु गुनीजनों का धन्यवाद... जो आपने इस नाचीज को समझा और सराहा...
    यूँ ही आते रहें...शुक्रिया

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