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मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

वो जो महफ़िल में हमसे कुछ परे बैठे हैं



वो जो महफ़िल में हमसे कुछ परे बैठे हैं
हम तो उनसे मिलने की आस धरे बैठे हैं

यूँ तो कभी होते नहीं वो हमख्याल हमसे
एक हम हैं जो जमाने से उनपे मरे बैठे हैं

हम तो शुमार करते हैं अजीजों में उनको
ना जाने क्यूँ वो हमसे अदावत करे बैठे हैं

के शायद किस्मत ही तंग है कुछ अपनी
सिवा हमारे ही यहाँ सब उनके वरे बैठे हैं

कभी तो होगा उनका रुख अपनी जानिब
यही इक ख्वाब"राज"आँखों में भरे बैठे हैं