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शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

शब् के साए से निकलना चाहता है


शब् के साए से निकलना चाहता है 
चराग शाम से ही जलना चाहता है 

ख्वाब की तासीर बहुत कम रही है 
अब हकीकत में बदलना चाहता है 

जब तय्य्खुल में जिक्र माजी का हो 
आँख से दरिया पिघलना चाहता है 

वस्ल के लम्हों से रहा था ये गिला 
क्यों वक़्त जल्दी ढलना चाहता है

ऐसा नहीं के मेरी आदत नहीं रहीं 
वो पर मेरे बगैर चलना चाहता है 

गम से महरुमियत यूँ तो नहीं उसे  
पर ''राज़'' यूँ ही बहलना चाहता है

गुनाह था मेरा होना इंसां की जात


ता-उम्र मेरे साथ होते रहे हादसात 
गुनाह था मेरा होना इंसां की जात 

सिसकते हुए सारे चराग बुझ गए 
जाने किस खौफ से गुजरी ये रात 

इश्क की बिसात का था ये हासिल 
हर चाल में मिली मात-मात-मात 

अपने हर्फों में कैसे उतारूँ मैं इसको
मुख़्तसर नहीं ये किस्सा-ए-हयात

गम में भी कोई यूँ मुस्कराए फिरे 
हर किसी को आसाँ नहीं है ये बात 

मंजर-ए-पुरकैफ का दीदार नहीं है 
हजारों गम लिए मिली है कायनात