लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, जुलाई 10, 2010

कहीं उलझे हैं बहुत के नजर नहीं आते


कहीं उलझे हैं बहुत के नजर नहीं आते 
आजकल आप तो हमारे घर नहीं आते 

रोज जाक़े बैठते तो हैं बज्म-ए-गैर में 
दानिश्ता ही क्या मेरे इधर नहीं आते 

तन्हाइयों का कैसा खौफ भर गए तुम 
सुकूँ के लम्हे अब इस शहर नहीं आते 

शजर जो आँधियों में झुका नहीं करते 
उनकी शाखों पर कभी समर नहीं आते 

सब पे नहीं होता खुदा का रहमो-करम 
मेरी जिद पे चाँद--तारे उतर नहीं आते 

वो करते तो हैं वादा शाम ढले आने का 
पर उनके ख्वाब भी रात भर नहीं आते 

पत्थरों में नहीं है दिल ये बात गलत है 
कोहसारों से वरना समन्दर नहीं आते 

हवाओं से अदावत करके भी सलामत 
चरागों के जैसे सब में हुनर नहीं आते 

क्यों मगरूर हो"राज"तुम इन लफ़्ज़ों पे 
क्या कहते ग़ज़ल, ख्याल गर नहीं आते

तेरा गम तुझी से छुपा कर के रोये


तेरा गम तुझी से छुपा कर के रोये 
कभी याद कर के भुला कर के रोये 

जफा उसने हमसे निभाई बहुत थी 
के गैरों से फिर वो वफ़ा कर के रोये 

चरागों से उल्फत रही जब न बाकी 
भरी तीरगी में बुझा कर के रोये 

अयादत मिरी अब करे कौन यारों 
यही गम जेहन में सजा कर के रोये 

है रुसवा बहर और अलफ़ाज़ गीले 
इन्ही पे ग़ज़ल गुनगुना कर के रोये 

यूँ समझा न कोई मेरा हाले-दिल जब 
खुदी हम, खुदी को, सुना कर के रोये 

थे काफ़िर सरीखे तो कुछ वो सही थे 
यूँ सजदा, इबादत, खुदा कर के रोये 

मिरी इल्तिजा थी, जरा देर रुकते 
हुआ ना ये उनसे, जता कर के रोये 

ख्वाबों ख्यालों में रह-रह के आये 
यही इक रही जो खता कर के रोये 

हिजर के ये मेले लगें ना कहीं पर 
यही"राज"सबको दुआ करके रोये 
*******************
Bahar....122 122 122 122