कहीं उलझे हैं बहुत के नजर नहीं आते
आजकल आप तो हमारे घर नहीं आते
रोज जाक़े बैठते तो हैं बज्म-ए-गैर में
दानिश्ता ही क्या मेरे इधर नहीं आते
तन्हाइयों का कैसा खौफ भर गए तुम
सुकूँ के लम्हे अब इस शहर नहीं आते
शजर जो आँधियों में झुका नहीं करते
उनकी शाखों पर कभी समर नहीं आते
सब पे नहीं होता खुदा का रहमो-करम
मेरी जिद पे चाँद--तारे उतर नहीं आते
वो करते तो हैं वादा शाम ढले आने का
पर उनके ख्वाब भी रात भर नहीं आते
पत्थरों में नहीं है दिल ये बात गलत है
कोहसारों से वरना समन्दर नहीं आते
हवाओं से अदावत करके भी सलामत
चरागों के जैसे सब में हुनर नहीं आते
क्यों मगरूर हो"राज"तुम इन लफ़्ज़ों पे
क्या कहते ग़ज़ल, ख्याल गर नहीं आते