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बुधवार, अगस्त 04, 2010

क़यामत की सहर भी



मेरा हो चला अब दुश्मन उनका शहर भी 
साकी बगैर लगता है ये पैमाना जहर भी 

उनके आने का वादा, बस वादा ही रहा है  
गुजरी हैं कई शामे मेरी मुंतजिर ठहर भी 

बिस्मिल नहीं होती हैं ये शब् के खौफ से 
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी 

हिज्र के मौसम में मेरे ख्वाब क्या बिछड़े 
आता नजर पलकों पे रतजगों का कहर भी 

कुछ लफ़्ज़ों का अफसूँ, हल्की सी बंदिश 
मिल जाती मेरी ग़ज़ल में, थोड़ी बहर भी 
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अफसूँ---Magic

इक और........"आरज़ू"


आँखों में ख्वाब सी पली "आरज़ू" 
रात भर शम्मा सी जली "आरज़ू" 

कभी फलक का तरन्नुम ठहरा हुआ 
कभी बर्क के साए में ढली "आरज़ू"

उसके छूने से गुलों में खुशबू हुई 
खुबसूरत सी महकती कली "आरज़ू"

रंग-ए-शफक उन आँखों से लिया 
सहर ने फिर खुद पे मली "आरज़ू" 

सुकून के दो लम्हे हुए हासिल वहां 
बन गयी खुदा की जब गली "आरज़ू" 

बेखुदी में ' राज ' ने कहा क्या क्या 
ग़ज़लों में आई जब चली "आरज़ू"