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बुधवार, मई 26, 2010

कभी ख्वाबों तो कभी ख्यालों में कटी रात


कभी ख्वाबों तो कभी ख्यालों में कटी रात 
उसने जो बख्शे थे उन शलालों में कटी रात 

हवा की आहट से भी उसका अहसास हुआ 
दिल में चले ऐसे कुछ बवालों में कटी रात 

"एक मेरा ही दिल था क्या टूटने के लिए"
दर्द से काबिज इन्ही सवालों में कटी रात 

सहर के इन्तजार में थक कर वहशी हुए 
हिज्र के लम्हे की तरह सालों में कटी रात 

काश अपनी वफ़ा हम उसपे जाहिर करते 
पर अब क्या हो, बस मलालों में कटी रात 

सुकूँ के दो लम्हे "राज" यूँ हुए थे नसीब 
जब मयखाने के रंगीं प्यालों में कटी रात

गुरुवार, मई 20, 2010

हम ग़ज़ल सुहानी लिख बैठे



छोटी सी कहानी लिख बैठे 
मौसम की रवानी लिख बैठे 
जब भी उसका जिक्र हुआ 
हम ग़ज़ल सुहानी लिख बैठे 

उसके चेहरे को सहर लिखा 
आरिज को दोपहर लिखा 
जुल्फों को काली रात लिखी 
आँखें मस्तानी लिख बैठे 
जब भी उसका जिक्र हुआ 
हम ग़ज़ल सुहानी लिख बैठे

खिजा की रुत को फ़ज़ा लिखा 
दिल का उसको खुदा लिखा 
नादाँ सी वो जब याद आई 
पगली दीवानी लिख बैठे 
जब भी उसका जिक्र हुआ 
हम ग़ज़ल सुहानी लिख बैठे

आलम का उसको नूर लिखा 
कुछ पास तो कुछ-2 दूर लिखा 
उसके आमद की आहट पे 
धड़कन आनी जानी लिख बैठे 
जब भी उसका जिक्र हुआ 
हम ग़ज़ल सुहानी लिख बैठे

मंगलवार, मई 18, 2010

इतना रोये के हम फिर मुस्कराना भूल गए


इतना रोये के हम फिर मुस्कराना भूल गए 
तेरे बाद किसी को अपना, बनाना भूल गए 

तुमने यूँ कहा तो था के अब याद ना करना
यही बात बस हम दिल को बताना भूल गए 

शब् ढलती रही और ये सहर भी चलती रही
जाने क्यूँ मगर हम खुद को सुलाना भूल गए 

मेरा कातिल क़त्ल करके मेरे सामने ही रहा 
एक हम के उसपे इल्जाम, लगाना भूल गए

गुरुवार, मई 13, 2010

आज फिर उसी के नाम से बिखर जाऊँगा


आज फिर उसी के नाम से बिखर जाऊँगा 
गर मयकदे न गया तो शायद मर जाऊँगा 

ना कर फिकर मेरी डूबती नब्जो की अब 
दरिया हूँ ठहरा जो कहीं तो उतर जाऊँगा 

मुसाफिर हूँ इस बेरंग सी शब् का मैं तो 
जैसे गुजरेगी शाम मैं भी गुजर जाऊँगा 

तुम गैर की महफ़िल में रंगीनियाँ होना 
मैं जुल्मतो में खुद ही ता-सहर जाऊँगा 

शउर नहीं मुझे अपनी सोचो पे रह गया 
जिधर ले जाए मंजिल मैं उधर जाऊँगा 

मेरे अफ़साने मेरे बाद अंजुमन में होंगे 
जाते-२ गजलों में दे ऐसा असर जाऊँगा

जा रहे हो तो इक जरा इधर देख लेना




जा रहे हो तो इक जरा इधर देख लेना 
तुम्हारे बगैर है ये तन्हा घर देख लेना 

जाने कैसी ख्वाहिश इनमे दे रखी है 
तुमको जो तकती हैं नजर देख लेना 

लौटोगे इस उम्मीद में ये शहर रहेगा 
वक़्त-ए-रुखसत पे मुड़कर देख लेना 

सूनी गलियां बस तुझको ही पुकारेंगी 
सूने आँगन की दीवारों-दर देख लेना 

कहीं जब दिल कोई दुखायेगा तुम्हारा 
मेरी भी रहेंगी ये चश्मे तर देख लेना 

यूँ तो चुप रहेगा ये गुलशन उम्र भर 
मगर होगा मुंतजिर शजर देख लेना 

माना के भुला दोगे ये जज्बा है तुम में 
याद करके ख्यालो में मगर देख लेना

उसकी ख़ुशी के लिए खुद को हंसाये रखता हूँ




पलकों के सिरहाने शबनम छिपाये रखता हूँ 
उसकी ख़ुशी के लिए खुद को हंसाये रखता हूँ 

वो गैर की बाहों में जब चैन से सोया करती है 
मैं अपनी आँखों में सावन को उठाये रखता हूँ 

बिस्तर की सिलवटो से खुशबू उसकी आती है 
माजी के खंडहरों में बस आये--जाये रखता हूँ 

जख्म खाकर भी हौसला खोया नहीं करता मैं 
चोट-पे-चोट खाने का जज्बा सजाये रखता हूँ 

उसके हिज्र में वीरानियाँ काबिज तो बहुत हैं 
पर सेहरा को फजा का, पता बताये रखता हूँ 

रंगे शफक जब उफक को चीर जाता है कभी 
अपने घर का रास्ता उसको दिखाये रखता हूँ 

अश्कों की शक्ल में ये जज्बे जब पिघलते हैं 
मैं बस गजलों को ही हमदम बनाये रखता हूँ



मंगलवार, मई 11, 2010

यादों की बज्म में उसका चर्चा निकला


यादों की बज्म में उसका चर्चा निकला 
तब आँखों से एक और दरिया निकला 

बादे-सबा जब भी चली उसके शहर से 
सीने में एक और जख्म ताजा निकला 

शब् भर उस इन्तजार की हद के पीछे 
मुझसे किया उसका एक वादा निकला 

मैं इक उम्र से उम्मीद-ए-फ़ज़ा लिए था 
ख्वाब बिखरा तो वो भी सहरा निकला 

शाम-ए-तन्हाई को जब सोचा किये हम 
गजलों की शक्ल में हर जज्बा निकला 

कहा आईने को जब कभी हाल अपना 
चटक के टूट गया कैसा बेवफा निकला 

जिस अक्स को लिए "राज" फिरते रहे 
तारीकियों में वो भी ना अपना निकला 

मंगलवार, मई 04, 2010

हर इक शय में खुदा हर बशर में खुदा


हर इक शय में खुदा हर बशर में खुदा 
देखो तो मिल जाता है घर घर में खुदा 

तकसीम तो कर रखी है हमी ने यहाँ 
वरना तो बसा हर इक नजर में खुदा 

मौसमों की रवायतें बनी उसके दम से 
शब् की रंगीनी औ ताजा सहर में खुदा 

शाखे गुल की फितरत यूँ नहीं मुख़्तसर 
शजर में खुदा है तो फिर समर में खुदा 

क़दमों में गर हो जरा भी हौसला तुम्हारे 
फिर मंजिल में खुदा हर सफ़र में खुदा 

ना जाऊं मैं मंदिर, ना मस्जिद मैं जाऊं 
हो सच्ची इबादत, मिले पत्थर में खुदा 

इतनी हैरत से मुझको तो ना देखो यारों 
"राज" होके काफिर रखे जिगर में खुदा 

फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में


बना रखी लकीरें मजहब की हमने शान में 
फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में 

कह लो हिंदी, कह लो उर्दू, या कहो फ़ारसी 
दिल ही मिलने चाहिए, कोई भी जबान में 

यूँ तो हम में मुक्तसर सी है नहीं कोई अदा 
पावँ रखे हैं जमीं पे, रखे सोच आसमान में 

इश्क के अब नाम पे ये खेल यारों हो रहा 
लैला-लैला खोजते हैं मजनू हर दुकान में 

तालीम वो सही जो मुल्क की बरकत करे 
वरना क्या रखा यहाँ है गीता में क़ुरान में 

दश्त में जिसने कभी झुकना सीखा ना हो 
वो शजर दबके रहे आँधियों के अहसान में 

भीगती आँखों ने उसे यूँ जुदा तो कर दिया 
रह जाएगा वो मगर ख्वाहिशों-अरमान में 

शब् का अंजाम यहाँ इससे ज्यादा कुछ नहीं 
शाम रंगीं बदलेगी फिर सहर की थकान में 

उन्वान अपनी गजलों में 'राज' रखते नहीं 
कोई तो पहुंचेगा मेरे, ख्यालों की उड़ान में