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बुधवार, मई 26, 2010

कभी ख्वाबों तो कभी ख्यालों में कटी रात


कभी ख्वाबों तो कभी ख्यालों में कटी रात 
उसने जो बख्शे थे उन शलालों में कटी रात 

हवा की आहट से भी उसका अहसास हुआ 
दिल में चले ऐसे कुछ बवालों में कटी रात 

"एक मेरा ही दिल था क्या टूटने के लिए"
दर्द से काबिज इन्ही सवालों में कटी रात 

सहर के इन्तजार में थक कर वहशी हुए 
हिज्र के लम्हे की तरह सालों में कटी रात 

काश अपनी वफ़ा हम उसपे जाहिर करते 
पर अब क्या हो, बस मलालों में कटी रात 

सुकूँ के दो लम्हे "राज" यूँ हुए थे नसीब 
जब मयखाने के रंगीं प्यालों में कटी रात

4 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार और बेहतरीन ग़ज़ल ....लाजवाब ,,,पहली बार आपके ब्लॉग पर आया aakar अच्छा लगा/// शब्दों के सफ़र में आज से मैं भी आपके साथ हूँ ....आपके सफल और सुखद भविष्य की शुभकामनाओ के साथ

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  2. शुक्रिया भाई साब.....आपका आभारी हूँ जो आपने वक़्त दिया और भावनाओं को समझा.. खुश रहिये

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  3. आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,

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