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बुधवार, सितंबर 28, 2011

अब नजर नहीं आता दस्तूर-ए-रहनुमाई यारों



भर गयी है इन्सां में कुछ इस कदर बुराई यारों 
अब नजर नहीं आता दस्तूर-ए-रहनुमाई यारों 

और जो क़त्ल हुए थे कल रात मजमे में देखो 
कोई और नहीं वो, थे हमारे--तुम्हारे भाई यारों 

चनार के सब बाग़ हैं झुलसे और चनाब रोये है 
किसने वादी में फिर से यूँ दहशत मचाई यारों 

संगीनों के साए में तो अपना साया भी न दिखे 
क्या खुदा रहा वो और क्या उसकी खुदाई यारों 

बस बात मजहब की, जबाँ की चलती है वहां 
आता नहीं नज़र कहीं पे गोशा-ए-भलाई यारों 

सियासतदानों से उम्मीद करना भी बेमानी है 
क्या अब तलक कभी उन्होंने है निभाई यारों 

कहकहों से घर की वीरानियाँ हों फिर से रौशन 
ले आओ तुम ही कुछ भाई-चारे की दवाई यारों 

*गोशा-ए-भलाई - अच्छा करने का अंदेशा