जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद
जो शब् होकर के खफा आयी है शायद
लो, अब खामोश तहरीर हो गयी है वो
हाँ, ख़त मेरे सब जला आयी है शायद
के अब रात-रात भर यादों में जागते हैं
काम कुछ तो मेरी दुआ आयी है शायद
सच कह कह के सबसे उलझते रहना
मेरे हक में ये ही सज़ा आयी है शायद
महक उठे हैं खुशबू से हजारों आलम
उसके गेसू छू के हवा आयी है शायद
होगी आरज़ू भी मुक्क़मल ''राज़'' की
खुदा की अब तो रज़ा आयी है शायद