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रविवार, अप्रैल 29, 2012

जब लफ्जों में उसका चर्चा हुआ होगा



इक और अशआर अच्छा हुआ होगा 
जब लफ्जों में उसका चर्चा हुआ होगा 

दिल के कोने से कुछ आहटें आती हैं 
कोई शायद यहाँ पे ठहरा हुआ होगा 

आजकल जी-आप से बात करता है 
मोहब्बत का नया लहजा हुआ होगा 

उसके आने की जब खबर आयी होगी 
आँखों में फिर दरिया उतरा हुआ होगा 

बरसों बाद आज फिर घर को लौटा हूँ 
सोचता हूँ के क्या-२ बदला हुआ होगा 

सफहों पे "राज़" दिल के बयां हुए होंगे 
इक-२ हर्फ़ आरज़ू का चेहरा हुआ होगा 

उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले



क्या हुआ जो के वो हमसे बेवफा निकले 
उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले 

उसका जिक्र हो तो बे-जुबाँ भी बोल पड़े 
काफिरों के लब से भी खुदा खुदा निकले 

चलो आओ हम भी नयी मोहब्बत लिखें 
नए ज़माने में नया सा फलसफा निकले 

कोई बे-वजह इसे बदनाम ना कर सके 
हो काश यूँ के मय भी कभी दवा निकले 

सहर आये मुस्कराती बागों में फलक से 
तब जाके गुंचों की शर्म-ओ-हया निकले 

गयी रुतों के फिर सारे पैरहन उतार कर 
देखो अबके शजर बहुत खुशनुमा निकले

पलकों पे फिर आंसुओं के सितारे जवाँ हों
जब याद उसकी दिल से होके सबा निकले

सदियाँ गुजर गयीं बस ये सोचते--सोचते   
के किसी रोज तो वो मेरी गली आ निकले 

के चाहो तो चीर दो तुम तहरीर "राज़" की 
लफ़्ज़ों में कुछ ना आरज़ू के सिवा निकले 

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

लफ़्ज़ों में हमने दर्द को बोया हुआ है


बड़ी मुश्किलों से आज सोया हुआ है 
ये दर्द मेरा कितनी रातें रोया हुआ है 

उसकी चाहत बस चाहत ही रह गयी 
ख्वाब में पाया, सच में खोया हुआ है 

निखर के आ गया है चेहरा सहर का 
शब् ने आंसुओं से इसे धोया हुआ है 

देखो के महकती हुई ग़ज़ल आ गयी 
लफ़्ज़ों में हमने दर्द को बोया हुआ है 


मंगलवार, अप्रैल 03, 2012

पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं



मौसमों की तरह वो भी रंग बदलने लगते हैं 
बुरे वक़्त दोस्त भी बचके निकलने लगते हैं 

जिन्हें मजहब का अलिफ़-बे भी नहीं पता  
बात मजहबी चले तो खूब उबलने लगते हैं 

आग दंगों की भला किसी को छोडती है कभी 
हिंदू हो या मुस्लिम घर सबके जलने लगते हैं  

वो लोग और होंगे जो पीकर लड़खडाते होंगे 
हम वो हैं जो पीकर के और संभलने लगते हैं 

ग़ज़ल में जिक्र जो उसका जरा सा हम कर दें 
ये चाँद सितारे फिर क्यूँ भला जलने लगते हैं 

जो सच बात तो वो कड़वी ही लगनी है तुमको 
क्या करें हम जो लफ्ज़ आग उगलने लगते हैं 

"राज़" मालूम है हमको क्या तासीर है अपनी  
पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं