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शनिवार, दिसंबर 29, 2012




बुरी थी वो आदत, छोड़ दी 
लो हमने शराफत छोड़ दी 

जाना के कुछ नहीं हासिल 
फिर क्या इबादत छोड़ दी 

ये भी मजाक ही है मियाँ 
झूठ ने सियासत छोड़ दी 

मौसम-ए-खिज़ा में पत्तों ने  
शज़र से मुहब्बत छोड़ दी

इल्जाम सब उसपे ही लगे 
वो जिसने बगावत छोड़ दी  

नाम ही दिल्ली रह गया बस    
दिल की तो रवायत छोड़ दी  

शनिवार, दिसंबर 22, 2012

लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा...




लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा 
ये वक़्त रुका न, फिसलता रहा 

जिसने न की कभी क़दर इसकी 
वो उम्र भर बस हाथ मलता रहा   

गयी रुतें तो, वो पत्ते भी चल दिए 
सहरा में तन्हा शजर जलता रहा 

दोस्त समझ के जिसे साथ रखा 
आस्तीनों में सांप सा पलता रहा 

उसकी यादों की गर्मी में, बर्फ सा  
रोज कतरा कतरा मैं गलता रहा 

मंजिल की दीद हुई न कभी मुझे 
ता-उम्र मैं सफ़र पे ही चलता रहा 

उसके जाने का गम तो नहीं पर  
ना लौटने का वादा खलता रहा 

शनिवार, दिसंबर 01, 2012

खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये




खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये 
वीरान घर में फिर से कुछ जिंदगी आये 

ख्वाब आँखों के आवारा हुये जाते हैं देखो  
शब् से कहो के उनको थोड़ा डांटती आये 

खुशबू-ए-अहसास जो लफ़्ज़ों में ढले तो    
सफहों पे महकती हुई फिर शायरी आये 

मकसद वजूद का यूँ हो जाये मुक़म्मल 
काम आदमी के जब कभी आदमी आये 

यूँ तो खुदा से कोई दुश्मनी नहीं हैं मगर 
रास हमे खुदाई से ज्यादा काफिरी आये 

सहरा के सुलगते दिल ये ही सोचते होंगे 
कभी दरिया के हक में भी तश्नगी आये 

"राज़" कुछ नहीं आरज़ू इक सिवा इसके 
के उसकी बांहों में ही सांस आखिरी आये