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शनिवार, दिसंबर 01, 2012

खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये




खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये 
वीरान घर में फिर से कुछ जिंदगी आये 

ख्वाब आँखों के आवारा हुये जाते हैं देखो  
शब् से कहो के उनको थोड़ा डांटती आये 

खुशबू-ए-अहसास जो लफ़्ज़ों में ढले तो    
सफहों पे महकती हुई फिर शायरी आये 

मकसद वजूद का यूँ हो जाये मुक़म्मल 
काम आदमी के जब कभी आदमी आये 

यूँ तो खुदा से कोई दुश्मनी नहीं हैं मगर 
रास हमे खुदाई से ज्यादा काफिरी आये 

सहरा के सुलगते दिल ये ही सोचते होंगे 
कभी दरिया के हक में भी तश्नगी आये 

"राज़" कुछ नहीं आरज़ू इक सिवा इसके 
के उसकी बांहों में ही सांस आखिरी आये 

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