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मंगलवार, मई 04, 2010

हर इक शय में खुदा हर बशर में खुदा


हर इक शय में खुदा हर बशर में खुदा 
देखो तो मिल जाता है घर घर में खुदा 

तकसीम तो कर रखी है हमी ने यहाँ 
वरना तो बसा हर इक नजर में खुदा 

मौसमों की रवायतें बनी उसके दम से 
शब् की रंगीनी औ ताजा सहर में खुदा 

शाखे गुल की फितरत यूँ नहीं मुख़्तसर 
शजर में खुदा है तो फिर समर में खुदा 

क़दमों में गर हो जरा भी हौसला तुम्हारे 
फिर मंजिल में खुदा हर सफ़र में खुदा 

ना जाऊं मैं मंदिर, ना मस्जिद मैं जाऊं 
हो सच्ची इबादत, मिले पत्थर में खुदा 

इतनी हैरत से मुझको तो ना देखो यारों 
"राज" होके काफिर रखे जिगर में खुदा 

फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में


बना रखी लकीरें मजहब की हमने शान में 
फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में 

कह लो हिंदी, कह लो उर्दू, या कहो फ़ारसी 
दिल ही मिलने चाहिए, कोई भी जबान में 

यूँ तो हम में मुक्तसर सी है नहीं कोई अदा 
पावँ रखे हैं जमीं पे, रखे सोच आसमान में 

इश्क के अब नाम पे ये खेल यारों हो रहा 
लैला-लैला खोजते हैं मजनू हर दुकान में 

तालीम वो सही जो मुल्क की बरकत करे 
वरना क्या रखा यहाँ है गीता में क़ुरान में 

दश्त में जिसने कभी झुकना सीखा ना हो 
वो शजर दबके रहे आँधियों के अहसान में 

भीगती आँखों ने उसे यूँ जुदा तो कर दिया 
रह जाएगा वो मगर ख्वाहिशों-अरमान में 

शब् का अंजाम यहाँ इससे ज्यादा कुछ नहीं 
शाम रंगीं बदलेगी फिर सहर की थकान में 

उन्वान अपनी गजलों में 'राज' रखते नहीं 
कोई तो पहुंचेगा मेरे, ख्यालों की उड़ान में