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शनिवार, अप्रैल 25, 2009

दर्द जब हद से गुजर गया होगा.....


दर्द जब हद से गुजर गया होगा 
वो अपनी ही मौत मर गया होगा....

कल रात पुरवाई चली थी शायद 
पुराना हर जख्म उभर गया होगा....

कितना टूटा था उम्र भर से वो शख्स 
आईना था छूने से बिखर गया होगा....

बहुत बरसीं हैं बरसातें इस रुत में 
मंजर का मंजर ही निखर गया होगा....

जो वक़्त पे किसी काम ना आया "राज"
वो इंसा हर एक नजर से उतर गया होगा....

सांचे में ढल जायेगा..




हिज्र का मौसम भी यूँ ही बदल जायेगा 
टूटे हर दिल में चराग सा जल जायेगा...

आशिकों के ग़मों की हद देखेगा जमाना 
जमीं तो जमीं आसमां भी पिघल जायेगा...

करनी हो गर यारी तो सेहरा से तुम करो 
मंजर फजाओं का एक पल में बदल जायेगा...

सोचता हूँ उसको सीने से लगा के रो ही लूं 
जाने किस घडी वो दिल से निकल जायेगा...

करके हौसला तूफां में उतार देना तुम उसे 
बहते बहते वो शख्स खुद ही संभल जायेगा...

तुमको जो चाहिए उसको बना रखना तुम 
कच्ची मिट्टी है 'राज' सांचे में ढल जायेगा...

दर्द हैं , आंसू हैं , वहशत -ए -आलम है

दर्द हैं , आंसू हैं , वहशत -ए -आलम है 
मैं हूँ , घर है और तेरी याद का मौसम है ...

किस तरह से मैं खुद पे यकीं कर लू 
होठो पे तो नगमे हैं , साँसे बरहम है ...

हौसलों को उसने कुछ आजमाया है इस कदर 
के इस दम तो दम है , अगले में बेदम है ...

गुनाह उसका भी तो सर मेरे ही आ जाए 
दिल ना टूटे किसी का ये दुआ हरदम है ...

फजाए देखकर मुझको क्यूँ रोने लगी हैं 
अभी तो कुछ कहा नहीं , इनको किसका गम है ...

"राज" हंसते हैं तो गुमा होता है लेकिन 
पलकों के सिरहाने तो मेरे भी शबनम है ...



आँखे नम नहीं करता




मैं यूँ ही अपनी आँखे नम नहीं करता 
हँसता रहता हूँ खुद पे सितम नहीं करता 

न आये मेरी अयादत को कोई तो क्या कुछ नहीं 
मैं तो आईने को भी अपना महरम नहीं करता 

बेवफा होना उसकी मजबूरी रही होगी शायद 
वरना रस्मे -उल्फत वो मुझसे कम नहीं करता 

खुदा है तो अपने वजूद का असर भी छोडेगा 
समर हर दरख्त पे बहारो का मौसम नहीं करता 

शब् है तो दर पे सहर भी आयेगी कभी "राज"
चराग जलाता हूँ शाम से मातम नहीं करता .

रातें.....

हिज्र की रातें विसाल की रातें 
उलझे सुलझे सवाल की रातें

नींद में चलना ख्वाब में जगना 
कैसी हैं ये कमाल की रातें

शाम से दोनों बेचैन बहुत हैं 
तनहा दिल और बवाल की रातें

आलम-ए-फुर्कत ना पूछो मुझसे 
कटी हैं कैसे ख्याल की रातें

इजहार-ए-वफ़ा हम कर ना पाए 
रह गयी अब बस मलाल की रातें

इश्क में मिलती "राज" ये नेमत 
दर्द-ओ-गम और शलाल की रातें 

वो मुझको जब ख़त लिखती है..

वो मुझको जब ख़त लिखती है 
दिल की हर हसरत लिखती है 
नींद से बोझिल आँखे उसकी 
तनहा-दिल और फुर्कत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है

मुझको तो सब गैर लगे है 
सावन रुत से बैर लगे हैं 
कोई न मौसम अपना सा है 
कब होगी अब कुर्बत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है

मुझमे न अब मैं रहती हूँ 
हर शय में तुमको तकती हूँ 
मरने से पहले आ जाना 
मिल जाए गर फुर्सत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है 

कितना और सताओगे तुम 
कब मिलने को आओगे तुम 
अपना मुझे बनाओगे क्या 
होगी कब ये रहमत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है