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बुधवार, अगस्त 25, 2010

आ जाओ कभी तो......


आ जाओ कभी तो दिल को चैन-ओ-करार हो जाए 
आँखों का मुद्दत से चल रहा ख़त्म इंतज़ार हो जाए 
भटक रहा हूँ जाने किसकी तलाश में दश्त-ब-दश्त 
तुमसे मिल लूँ तो शायद सेहरा में भी बहार हो जाए 

कितने लम्हे काटे हैं मैंने तन्हाई के साथ अपनी 
फिरता रहता हूँ कमबख्त रुसवाई के साथ अपनी 
तुम छू लो तो शायद ये मंजर भी गुलज़ार हो जाए 
आ जाओ कभी तो दिल को चैन-ओ-करार हो जाए 

ये सावन की बरखा भी अब मुझको रिझाती नहीं है 
ये बादे--सबा भी दिल को अब मेरे बहलाती नहीं है 
तुम कह दो ना इससे ज़रा,मेरी हम-ख्वार हो जाए 
आ जाओ कभी तो दिल को चैन-ओ-करार हो जाए 

मेरे अल्फाज़ ही दिल के जज्ब बयां करेंगे सब तुमसे 
ना कोई चाहत इसके सिवा हम भी करेंगे अब तुमसे 
तुम्हारे हाथों को चूम लें और खुद पे ऐतबार हो जाए 
आ जाओ कभी तो दिल को चैन-ओ-करार हो जाए

शनिवार, अगस्त 21, 2010

वो हमको और हम उनको भुलाया किये

जब से ख्वाहिश-ओ-अरमान जाया किये 
वो हमको और हम उनको भुलाया किये 

कर गए थे वादा शाम ढले आने का मगर 
सहर तक वो बस आया किये आया किये 


देकर जख्म दिल को भी खुश ना रह सके 
हम होकर बिस्मिल भी, मुस्कराया किये 

यादों का समंदर शब् भर मचला जेहन में 
चरागे-अश्क, जलाया किये, बुझाया किये

जाने किस उम्मीद में सोये नहीं हम कभी 
यही इक था सितम खुद पे बस ढाया किये 

उनकी खातिर बहारों का पैगाम लिख दिया 
घर अपना 'राज' खारों से ही सजाया किये

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

अपनी दुआओं में तुझे माँगा है


उड़ती घटाओं में तुझे माँगा है 
महकी फिजाओं में तुझे माँगा है 

जब ही इबादत में हाथ उठायें हैं 
अपनी दुआओं में तुझे माँगा है 

रात ख्वाबों में भी आई हों जब
दिल की सदाओं में तुझे माँगा है 

आईने से जब जी भर गया अपना 
फिर इन निगाहों में तुझे माँगा है 

थके जब सफ़र में तन्हा चलते-२ 
शजर की छावों में तुझे माँगा है

रविवार, अगस्त 15, 2010

वो तो ख्वाबों में भी नजर नहीं आया


वो तो ख्वाबों में भी नजर नहीं आया 
ऐसा बिछड़ा, के लौट कर नहीं आया 

तमाम उम्र भटके हम मुंतजिर उसके 
वो गली नहीं आई,वो शहर नहीं आया 

शब् की सियाही में भी रही थी रौनक 
शफक ही बस इक मेरे दर नहीं आया 

ऐसा फंसा वो शहर की मुश्किलों में 
के माँ कहती रह गयी,घर नहीं आया 

जिसके शानों पे सर रख के रोते हम 
ज़माने में कोई ऐसा बशर नहीं आया 

सरे महफ़िल हम कहते, वाह-२ होती
तहरीर में अपनी वो हुनर नहीं आया 

मुहब्बत का शजर वफ़ा से सींचा तो था 
पर इन शाखों पे कभी समर नहीं आया 

खुदा की फेहरिस्त में शायद आखिरी था 
दुआओं में "राज" तभी असर नहीं आया

शनिवार, अगस्त 14, 2010

ग़ज़ल की है रौनक-ओ-शान "आरज़ू"


मिरी तहरीर की हुई अब जान "आरज़ू" 
ग़ज़ल की है रौनक-ओ-शान "आरज़ू" 

चाँद सितारे सब तेरे ही तो नाम हैं यहाँ 
है खुदा, इबादत और आसमान "आरज़ू" 

गर्मियों में खिलती धूप सरीखी लगे 
सर्दियों में सुकूँ का सायबान "आरज़ू" 

इक यही और क्या बाकी हसरत मेरी 
हो तुझसे ही अब मेरी पहचान "आरज़ू" 

तेरे सामने बैठूं और तुझे ही देखा करूँ 
ज़माने से है दिल में ये अरमान "आरज़ू" 

तेरे ही दर पे करे सजदा शामो-सहर 
"राज" का हुई जब से ईमान ''आरज़ू" 

बुधवार, अगस्त 11, 2010

वक़्त कैसा भी हो निकल जाता है


वक़्त कैसा भी हो निकल जाता है 
संग भी एक रोज पिघल जाता है 

सलीके से मिला करो उस से तुम 
खुदा भी अपने रंग में ढल जाता है 

वो मेरे साथ क्या चल देती है जरा 
ये जमाना कमबख्त जल जाता है 

हौसला बाजुओं में हो जिनके यहाँ 
तूफां भी उनसे रुख बदल जाता है 

क्या मिलाएगा अब आँख मुझसे वो 
बेवफा है, मुँह छुपा निकल जाता है

बर्क उमर भर नही होती फलक पे 
बरसात हुई के सावन टल जाता है 

"राज" समझेगा कभी वो भी जज्बे 
इसी भरोसे पे ही आजकल जाता है

रब याद आया.....


तेरा मिलना--बिछड़ना सब याद आया
तेरा नाम लिया तो फिर रब याद आया

जिसके लिए आँखों में था रतजगा हुआ 
वो तेरी ही याद थी मुझे अब याद आया

नाम तेरा बस गया हो दिल में जिनके 
उन काफिरों को खुदा कब याद आया 

नहीं समायी थी तेरी सूरत उसमे कहीं 
आईना चटकने का वो सबब याद आया 

लगा बैठे थे तुम गैर की मेहँदी पावों में 
मुझसे किया वादा तुम्हे तब याद आया 

"राज" ग़ज़लों में अपने जज्बे कह गए 
किताब का सूखा गुलाब जब याद आया

बुधवार, अगस्त 04, 2010

क़यामत की सहर भी



मेरा हो चला अब दुश्मन उनका शहर भी 
साकी बगैर लगता है ये पैमाना जहर भी 

उनके आने का वादा, बस वादा ही रहा है  
गुजरी हैं कई शामे मेरी मुंतजिर ठहर भी 

बिस्मिल नहीं होती हैं ये शब् के खौफ से 
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी 

हिज्र के मौसम में मेरे ख्वाब क्या बिछड़े 
आता नजर पलकों पे रतजगों का कहर भी 

कुछ लफ़्ज़ों का अफसूँ, हल्की सी बंदिश 
मिल जाती मेरी ग़ज़ल में, थोड़ी बहर भी 
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अफसूँ---Magic

इक और........"आरज़ू"


आँखों में ख्वाब सी पली "आरज़ू" 
रात भर शम्मा सी जली "आरज़ू" 

कभी फलक का तरन्नुम ठहरा हुआ 
कभी बर्क के साए में ढली "आरज़ू"

उसके छूने से गुलों में खुशबू हुई 
खुबसूरत सी महकती कली "आरज़ू"

रंग-ए-शफक उन आँखों से लिया 
सहर ने फिर खुद पे मली "आरज़ू" 

सुकून के दो लम्हे हुए हासिल वहां 
बन गयी खुदा की जब गली "आरज़ू" 

बेखुदी में ' राज ' ने कहा क्या क्या 
ग़ज़लों में आई जब चली "आरज़ू"