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बुधवार, मार्च 31, 2010

याद करता भी जाएगा भुलाता भी जायेगा


याद करता भी जाएगा भुलाता भी जायेगा 
जख्मो पे मेरे यूँ नमक लगाता भी जायेगा 

साहिल-ओ-मौज का तजुर्बा रखता है खुद में 
पास आता भी जायेगा दूर जाता भी जायेगा 

अब्र जब भी फलक के रूबरू बैठा करेगा यूँ 
हर सहरा को गुलिस्ताँ बनाता भी जायेगा 

अपने दर्द की लज्जत खुद ही खुद में रखेगा 
जब भी मिलेगा ज़रा मुस्कुराता भी जायेगा 

मेरी आदतें उसने यूँ तो बिगाड़ रखी हैं बहुत 
मुझसे रूठेगा मगर मुझे मनाता भी जायेगा 

मेरी खताओं का मुझपे इल्जाम लगा देगा 
और हर सजाओं से फिर बचाता भी जायेगा

शनिवार, मार्च 27, 2010

आज फिर आँख नम है


उसके जाने का गम है 
आज फिर आँख नम है 

सांस तो चल रही है पर 
सीने में बाकी ना दम है 

लबों पे हंसी रखूं कैसे 
दर्द कहाँ भला कम है 

ये बहारें बेमानी सी हैं
क्या हिज्र का मौसम है 

ख्याल से निकालूं कैसे 
एक वो ही तो भरम है

गुरुवार, मार्च 25, 2010

तन्हाई में......


अब तो आँखों का रतजगा होता है तन्हाई में 
ना सांस चलती है ना दिल सोता है तन्हाई में 

बिछड़ कर वो भी तो कहीं खुश नहीं रह पाया 
बेसबब याद कर मुझे बहुत रोता है तन्हाई में 

किसी आईने सी जब ये रात बिखर जाती है 
चुन-2 के दिल ये जज्बे संजोता है तन्हाई में 

बादे-सबा जब भी उसकी खुशबू सी ले आती है 
पलकों का कोहसार मुझे भिगोता है तन्हाई में 

दर्द जब कभी बे-इन्तेहाँ ही बढ़ जाता है मेरा 
लहू-ए-चश्म ही हर जख्म धोता है तन्हाई में 

मुझमे मौसमों सी बदलती सूरते मिलती हैं 
जाने कैसी-2 फसलें दिल बोता है तन्हाई में

सोमवार, मार्च 22, 2010

अब ना गम रहा ना कोई मलाल रहा


अब ना गम रहा ना कोई मलाल रहा 
के जब से दिल में ना तेरा ख्याल रहा 

हसरतें जिंदगी की सब मिट गयीं यूँ 
ना हंसी रही ना आँखों में शलाल रहा 

तेरे हुस्न के मारे अब जियें कैसे बता 
संगदिल से बस यही एक सवाल रहा 

अपने माजी से ही तकरार हुई अपनी 
ये आलम-ओ-मंजर सालो-साल रहा 

खुद ही खुद की तबाही का सबब हुए 
किसी से ना कभी हमको बवाल रहा 

रो-रो के हँसे, हंस-हंस के रोया किये 
वहशत में उसकी, ऐसा भी हाल रहा

दर्द ही जिंदगी का इक हमसफ़र रहा


वो मेरे जख्मों से जबसे बेखबर रहा 
दर्द ही जिंदगी का इक हमसफ़र रहा 

खामोश रह गए तो गुनहगार हो गए 
बेवफाई का इल्जाम मेरे ही सर रहा 

नहीं बहला था दिल शाम के आने से 
मन्जर तन्हाई का फिर रात भर रहा 

बात कर लेते तो शायद सुलझ जाती 
रुसवा होने का मगर उनको डर रहा 

यूँ तो आसमाँ में बर्क बहुत चमकी 
निशाना सिर्फ एक मेरा ही घर रहा

शुक्रवार, मार्च 19, 2010

अहदे वफ़ा कुछ यूँ भी निभाते रहे


अहदे वफ़ा कुछ यूँ भी निभाते रहे 
जख्म खाके भी हम मुस्कराते रहे 

मौज आयी गर तो बिखर जाएगा 
ये जानके भी रेत पे घर बनाते रहे 

जिसकी आमद पे आँखे खुली रही 
सिवाय उनके सभी लोग आते रहे 

न की रकीबों से भी रकीबत हमने 
बस सबसे दुआ सलाम उठाते रहे 

कोई संजीदा शख्स मिला जब यूँ 
उसको भी सीने से हम लगाते रहे 

औ कैसे मेरी यादों के हर्फ़ मिटाए 
सुना शब् भर ख़त मेरे जलाते रहे

परिंदा हूँ कफस से डरता नहीं हूँ



सैयाद से मैं गिला रखता नहीं हूँ 
परिंदा हूँ कफस से डरता नहीं हूँ 

बेवफा हो जाना है फितरत तेरी 
शिकवा तुझसे मैं करता नहीं हूँ 

कुछ यादों का असीर तो हूँ मगर 
मयखाने में कभी मिलता नहीं हूँ 

आफताब हूँ हौसला ना आजमा 
शब्-ए-चराग सा जलता नहीं हूँ 

क़ज़ा का वक़्त जब है मुक्क़मल 
हर लम्हा इसलिए मरता नहीं हूँ 

बेख़ौफ़ से शजर की नस्ल है मेरी 
आंधी में तिनके सा उड़ता नहीं हूँ 

कायम रखता हूँ रुख आसमाँ सा 
मौसम सरीखा मैं बदलता नहीं हूँ

मंगलवार, मार्च 16, 2010

बज्म में उसका वो आना अच्छा लगता है



बज्म में उसका वो आना अच्छा लगता है 
अब बेवजह भी मुस्कराना अच्छा लगता है 

रात ख्वाबों में वो आकर क्या मिला 
सुबह से फिर दूर जाना अच्छा लगता है 

यूँ होके तन्हा जब हम कहीं बैठे रहें 
याद में उसको बुलाना अच्छा लगता है 

"देख लेना कल नहीं मैं अब आउंगी "
जाते-२ ये भी ताना अच्छा लगता है 

इक जरा सी बात पे गर रूठ जाऊं मैं कभी 
प्यार से उसका मनाना अच्छा लगता है 

आईने में मुझको बस वो ही नजर आया करे 
आँखों को ये लम्हा सुहाना अच्छा लगता है 

अब सिवा उसके ना चाहत और कोई 
उसकी कुर्बत का जमाना अच्छा लगता है

बुधवार, मार्च 10, 2010

हम भी दीवाने लगते हैं....



 उसके कंगन उसकी चूड़ी जब दिल को भाने लगते हैं 
वो भी दीवाने हो जाते हैं और हम भी दीवाने लगते हैं 

रात--रात भर जाग के यारों वो रस्ता मेरा तकती है 
उस भोली सी पगली को फिर ख्वाब सताने लगते हैं 

बदली की इस ओट में जब ये चाँद सुहाना खिलता है 
मेरे घर की छत पर से फिर सब पंछी जाने लगते हैं 

बहते बहते वो दरिया जब आकर मुझसे टकराता है 
उसकी तेज रवानी पे भी कुछ साहिल आने लगते हैं 

काफिर नाम हमारा तुमने जाने कब-क्यूँ दे डाला है 
मस्जिद में गर हो अजान, हम भी दोहराने लगते हैं 

करके वादा आते आते जब वो घर अपने रुक जाते हैं 
बारिश का करते हैं बहाना, कुछ कसमे खाने लगते हैं 

उसकी सूरत पे तब हमको यूँ प्यार बहुत आ जाता है 
जब अपनी प्यारी आँखों से वो अश्क बहाने लगते हैं  

शाख से बिछड़ा इक पत्ता जब आंधी से टक्कर लेता है 
हम टूटे सब रिश्तों को फिर चुपके से सजाने लगते हैं 

उसके घर से मेरी गली को, बादे-सबा जब चलती है 
अपने दिल का 'राज' यूँ सारा उसको सुनाने लगते हैं

किसी के लिए इतना तो कर जाएँ


किसी के लिए इतना तो कर जाएँ 
दामन में दुआओं का रंग भर जाएँ 

जब वक़्त के सफ़र में शाम हो कहीं 
चलो यारों यहीं पे हम भी ठहर जाएँ 

माकूल अपने हर ज़वाब तुम रखना 
सवाल करने वाले कहीं ना डर जाएँ 

शोहरत इस ज़माने में गुल सी हो यूँ 
के बनके इक खुशबू बस बिखर जाएँ 

दुआ दो सेहरा में के मौसमे गुल हो 
जहाँ तक हो नजर मंजर सवंर जाएँ 

मेरी गजलों में अब कुछ नहीं बाकी 
चलो तुम भी जाओ हम भी घर जाएँ

बुधवार, मार्च 03, 2010

इश्क जात नहीं देखता .....


मजहब नहीं देखता इश्क जात नहीं देखता 
ये रंग नहीं देखता और औकात नहीं देखता 

जब होना होता है किसी को तब हो जाता है 
दिन नहीं देखता कभी, ये रात नहीं देखता 

क्या खोया क्या गंवाया किसने क्या फिकर 
कोई शह नहीं देखता, कोई मात नहीं देखता 

दीद महबूब की ख्वाबों में किया करता है 
बेतकल्लुफ सी कोई मुलाकात नहीं देखता 

नहीं पड़ता है, फर्क इसे, कौन हैं क्या है तू 
तू "तू" हैं सिवा इसके कोई बात नहीं देखता 

सोमवार, मार्च 01, 2010

वो जख्म, वो दर्द, वो वीरानियाँ रहती हैं


वो जख्म, वो दर्द, वो वीरानियाँ रहती हैं 
आज भी घर मेरे ये निशानियाँ रहती हैं 

मौसमों के झोंके सा यहाँ वहां फिरता है 
जाने कैसी दिल में परेशानियाँ रहती हैं 

मेरा हर ख्वाब सहर से पहले टूटता है 
कहाँ पे खुदा की निगेहबानियाँ रहती हैं 

मेरे अजीज पीठ पे वार किया करते हैं 
उनकी ऐसी कुछ मेहरबानियाँ रहती हैं 

किसी की जफा को जब वफ़ा कहता हूँ 
चेहरे पे तब उनके पशेमानियाँ रहती हैं 

नहीं तोहमत मैं उस मासूम पे लगाता
याद बस कुछ मुझे नादानियाँ रहती हैं