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गुरुवार, मई 13, 2010

आज फिर उसी के नाम से बिखर जाऊँगा


आज फिर उसी के नाम से बिखर जाऊँगा 
गर मयकदे न गया तो शायद मर जाऊँगा 

ना कर फिकर मेरी डूबती नब्जो की अब 
दरिया हूँ ठहरा जो कहीं तो उतर जाऊँगा 

मुसाफिर हूँ इस बेरंग सी शब् का मैं तो 
जैसे गुजरेगी शाम मैं भी गुजर जाऊँगा 

तुम गैर की महफ़िल में रंगीनियाँ होना 
मैं जुल्मतो में खुद ही ता-सहर जाऊँगा 

शउर नहीं मुझे अपनी सोचो पे रह गया 
जिधर ले जाए मंजिल मैं उधर जाऊँगा 

मेरे अफ़साने मेरे बाद अंजुमन में होंगे 
जाते-२ गजलों में दे ऐसा असर जाऊँगा

जा रहे हो तो इक जरा इधर देख लेना




जा रहे हो तो इक जरा इधर देख लेना 
तुम्हारे बगैर है ये तन्हा घर देख लेना 

जाने कैसी ख्वाहिश इनमे दे रखी है 
तुमको जो तकती हैं नजर देख लेना 

लौटोगे इस उम्मीद में ये शहर रहेगा 
वक़्त-ए-रुखसत पे मुड़कर देख लेना 

सूनी गलियां बस तुझको ही पुकारेंगी 
सूने आँगन की दीवारों-दर देख लेना 

कहीं जब दिल कोई दुखायेगा तुम्हारा 
मेरी भी रहेंगी ये चश्मे तर देख लेना 

यूँ तो चुप रहेगा ये गुलशन उम्र भर 
मगर होगा मुंतजिर शजर देख लेना 

माना के भुला दोगे ये जज्बा है तुम में 
याद करके ख्यालो में मगर देख लेना

उसकी ख़ुशी के लिए खुद को हंसाये रखता हूँ




पलकों के सिरहाने शबनम छिपाये रखता हूँ 
उसकी ख़ुशी के लिए खुद को हंसाये रखता हूँ 

वो गैर की बाहों में जब चैन से सोया करती है 
मैं अपनी आँखों में सावन को उठाये रखता हूँ 

बिस्तर की सिलवटो से खुशबू उसकी आती है 
माजी के खंडहरों में बस आये--जाये रखता हूँ 

जख्म खाकर भी हौसला खोया नहीं करता मैं 
चोट-पे-चोट खाने का जज्बा सजाये रखता हूँ 

उसके हिज्र में वीरानियाँ काबिज तो बहुत हैं 
पर सेहरा को फजा का, पता बताये रखता हूँ 

रंगे शफक जब उफक को चीर जाता है कभी 
अपने घर का रास्ता उसको दिखाये रखता हूँ 

अश्कों की शक्ल में ये जज्बे जब पिघलते हैं 
मैं बस गजलों को ही हमदम बनाये रखता हूँ