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बुधवार, नवंबर 17, 2010

मुझको तो ना जाने कैसा गुमान रहता है


मुझको तो ना जाने कैसा गुमान रहता है 
उसके इंतज़ार में भी, इत्मिनान रहता है 

और उसने छत पे टहलना छोड़ा है जबसे  
उसके शहर का हर शख्स परेशान रहता है 

खलिश किसी रिश्ते में आ गयी जब यारों  
ज़ख्म भर भी जाए मगर निशान रहता है 

मेरे बुजुर्ग जब तलक हैं नज़रों के सामने    
पाओं में ज़मीं है सर पे आसमान रहता है 

इश्क के सफ़र में तो मंजिल नहीं मिलती 
कदम-कदम पे बस नया इम्तेहान रहता है 

उसकी याद और वहशत का आलम ऐसा  
जो कफस में परिंदा कोई बेजुबान रहता है 

जिन्दगी से जब भी उकता गया है ये"राज़" 
फिर लिखता रोज़ वो इक दास्तान रहता है