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रविवार, अक्तूबर 10, 2010

मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा


मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा 
फिर भी मैं तो बड़ा मस्त कलंदर रहा 

ये सोच के इश्क में हार जाया किये थे 
के कब जीतकर भी खुश सिकंदर रहा 

जाने क्या रंजिश बादलों की रही हमसे 
के सारा शहर भीगा घर मेरा बंजर रहा 

वो तेरा हाथ छुड़ाना और ख़ामोशी मेरी 
ता--उम्र आँखों में बस यही मंजर रहा 

जब भी नफे नुकसान का हिसाब देखा 
मेरी पीठ पे, मेरे अपनों का खंजर रहा  

तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए


तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए 
कभी खुशनुमा सहर, कभी दिन सुहाना चाहिए 

खुद हो क्या बेक़सूर जो उठाते हो तुम उँगलियाँ 
तो यूँ नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहिए 

रिश्तों की शाखों पे ऐसे नहीं समर लगा करते हैं 
कभी तुम्हे भी तो हमारे घर आना-जाना चाहिए 

अपने हालात तुमसे मैं और बयां करूँ कैसे यारों 
भटक रहा हूँ सेहरा में, बस इक ठिकाना चाहिए 

इस जहाँ में अब बसर नहीं होगी ऐ मासूम तेरी 
यहाँ तो जीने की खातिर इंसान सयाना चाहिए 

इश्क का कारोबार तो बड़ा पेचीदा हो गया यहाँ 
दिल हार जाना चाहिए औ नफ़ा कमाना चाहिए 

अरे, मरीज-ऐ-इश्क है ये ''राज़'' उसे दवा ना दो 
उसको तो साथ रिन्दों का और मयखाना चाहिए 

चले आना.....


सेहरा में बन कर तुम फुहार चले आना 
करेंगे फिर इश्क का कारोबार चले आना

जो गम ज़माने में गर दे जाए तुम्हे कोई
ना सोचना कभी तुम एक बार चले आना

और थक जाओ कभी हमसा ढूंढ़ते--ढूंढ़ते
मिलेंगे वँही करते हम इंतज़ार चले आना

मुझे मालूम है तन्हा जीना यूँ आसान नहीं 
जिंदगी का सफ़र हो जाए दुश्वार चले आना

ये चाँद मुआ देखकर तुम्हे भरता है आहें 
छत पे हो उससे जरा होशियार चले आना 

मेरे शानो पे रखके सर सुकूँ पा लेना तुम 
जहन-ओ-दिल हो जब बेक़रार चले आना

कभी"राज़"जो तुम्हे सोचे यूँ ही तन्हाई में 
होकर तुम खुशनुमा इक बहार चले आना