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मंगलवार, मार्च 29, 2011

लफ्ज़ मेरा शायराना रह गया



आते-आते उनका आना रह गया 
दरमियाँ गुज़रा ज़माना रह गया 

कटी शब्-ए-इंतजार कुछ यूँ मेरी
के जुगनुओं से दोस्ताना रह गया

थी जिंदगी की हर कहानी बेअसर 
पर लफ्ज़ मेरा शायराना रह गया 

छोड़ कर आहों के परिंदे उड़ चले 
मौसम कहाँ अब सुहाना रह गया

शनिवार, मार्च 26, 2011

तुझसे कहते कैसे.....



रात अश्कों का आना जाना तुझसे कहते कैसे 
अपने दर्दो-गम का फ़साना तुझसे कहते कैसे

के तुझे फुर्सत नहीं गैरों की महफ़िल से मिली 
कुछ अपना दिल नहीं माना तुझसे कहते कैसे

हुआ ज़िक्र जो यूँ बे-वफाओं का तो खामोश रहे 
नाम तेरा भी था उनमे आना तुझसे कहते कैसे

तेरे गम लिए आँख रखीं पुरनम खुद की हमने 
हंसने का तो था बस बहाना तुझसे कहते कैसे

तेरे ख्यालों से ही थी मुक़म्मल तहरीर अपनी 
था ग़ज़लों का तू उन्वाँ जाना तुझसे कहते कैसे

तर्के-ताल्लुक नहीं कोई मरासिम नहीं ''राज़''
के नहीं रहा अब वो ज़माना तुझसे कहते कैसे

गुरुवार, मार्च 17, 2011

उसकी खुशबू का फिर से पता देती है


उसकी खुशबू का फिर से पता देती है 

ये सबा चलती है मुझको रुला देती है 

वो भी तड़पती है हिज्र में कहीं बहुत 
मेरे बाद जाने किस को सदा देती है 

वो आते हैं जो शाम तो सुकूँ पाती है 
शाख इक-इक परिंदे को दुआ देती है 

जबके गम में जीना सीख लेता हूँ मैं 
क्यूँ याद दर्द के शोले को हवा देती है 

रोया है वो रात भर तन्हाई में कहीं 
'राज़' ये शबनम सबको बता देती है 

गुरुवार, मार्च 10, 2011

बंदे बस बंदगी की रवायत में मिला करते हैं



कहाँ अब ये सच्ची इबादत में मिला करते हैं 
बंदे बस बंदगी की रवायत में मिला करते हैं 

छल फरेब झूठ से है यहाँ पर जिनका वास्ता 
ऐसे लोग ही बस सियासत में मिला करते हैं 

जिन्हें रखा है कौम की हिफाज़त की खातिर 
वही दंगाइयों की हिमायत में मिला करते हैं 

दोस्त कहके पीठ पे वार करना शगल उनका 
कुछ लोग ऐसी भी शराफत में मिला करते हैं 

जर्द हो मौसम तो खुद ही रास्ता तलाश करिए 
महरो-माह कहाँ ऐसी आफत में मिला करते हैं

रविवार, मार्च 06, 2011

सच बोलता है बहुत....



हाल-ए-दिल यूँ सभी से बताना नहीं यारों 
अपनों से पर कुछ भी छिपाना नहीं यारों 

और रूठा हुआ है वो तो मना लेना उसे भी 
बिछड़े गर तो, होता लौट आना नहीं यारों 

अपनी किस्मत से ही तुम खुश हो रहना 
चादर से ज्यादा पैर को फैलाना नहीं यारों 

महर-ओ-माह की यूँ ख्वाहिश बुरी नहीं है 
पर गैर की चीज़ पे नज़रें उठाना नहीं यारों 

थोडा तल्ख़ है क्यूंकि सच बोलता है बहुत 
" राज़ " की बातें दिल से लगाना नहीं यारों 

मंगलवार, मार्च 01, 2011

सबको दुआ दी जाए....



उसकी याद अपने जेहन से मिटा दी जाए 
के इस नादाँ दिल को भी यूँ सज़ा दी जाए 

परिंदों का जबके यहाँ आना नहीं मुमकिन 
क्यों ना दरख़्त की हर शाख जला दी जाए 

शब्-ए-इंतज़ार की देखो तो सहर हो चुकी 
चलो रौशनी चरागों की अब बुझा दी जाए 

निकल आये हैं जब उनकी हदों से दूर बहुत 
उसकी वफ़ा, उसकी खता सब भुला दी जाए 

जब भी इबादत में झुके ''राज़'' सर अपना 
दोस्त हो या दुश्मन, सबको दुआ दी जाए