उसकी याद अपने जेहन से मिटा दी जाए
के इस नादाँ दिल को भी यूँ सज़ा दी जाए
परिंदों का जबके यहाँ आना नहीं मुमकिन
क्यों ना दरख़्त की हर शाख जला दी जाए
शब्-ए-इंतज़ार की देखो तो सहर हो चुकी
चलो रौशनी चरागों की अब बुझा दी जाए
निकल आये हैं जब उनकी हदों से दूर बहुत
उसकी वफ़ा, उसकी खता सब भुला दी जाए
जब भी इबादत में झुके ''राज़'' सर अपना
दोस्त हो या दुश्मन, सबको दुआ दी जाए
सुदंर गजल। हरेक शेर दाद के काबिल। शुभकामनाएॅ।
जवाब देंहटाएंगज़ब की शायरी…………हर शेर मुकम्मल्।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गज़ल..हरेक शेर लाज़वाब..
जवाब देंहटाएंअमित जी........शुक्रिया
जवाब देंहटाएंवंदना जी.........शुक्रिया
कैलाश जी........शुक्रिया