कभी मुझ पर भी तू इतनी दुआ कर
ख्वाब में ही सही आके तो मिला कर
महर-ओ-माह की नहीं दरकार मुझे
मेरे घर में इक चराग बस अता कर
थक चुकी है ये शब् तीरगी से बहुत
नसीमे-सहर दे खूबसुरत फ़ज़ा कर
ना ले थाम हाथों में तू हाथ मेरा पर
साथ कुछ दूर चलने से ना मना कर
आजार-ए-इश्क का भी मज़ा ले यहाँ
अरे इक बार ही सही ये भी खता कर
सुकूँ उसके ही दर पर ही तुझे आएगा
चल मस्जिद चल इबादत-ए-खुदा कर
ज़फ़ा करे वो तो हंस के टाल दे "राज़"
कुछ और ना उनसे वफ़ा के सिवा कर