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सोमवार, जनवरी 17, 2011

ख्वाब में ही सही आके तो मिला कर


कभी मुझ पर भी तू इतनी दुआ कर 
ख्वाब में ही सही आके तो मिला कर 

महर-ओ-माह की नहीं दरकार मुझे 
मेरे घर में इक चराग बस अता कर 

थक चुकी है ये शब् तीरगी से बहुत
नसीमे-सहर दे खूबसुरत फ़ज़ा कर 

ना ले थाम हाथों में तू हाथ मेरा पर  
साथ कुछ दूर चलने से ना मना कर 

आजार-ए-इश्क का भी मज़ा ले यहाँ 
अरे इक बार ही सही ये भी खता कर 

सुकूँ उसके ही दर पर ही तुझे आएगा 
चल मस्जिद चल इबादत-ए-खुदा कर 

ज़फ़ा करे वो तो हंस के टाल दे "राज़"
कुछ और ना उनसे वफ़ा के सिवा कर 

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुन्दर गज़ल्।

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  2. बहुत सुंदर नज़्म. बेहतरीन अंदाज़.

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  3. बेनामी19 जनवरी, 2011

    ख्वाब में ही सही आके तो मिला कर/महर-ओ-माह की नहीं दरकार मुझे/मेरे घर में इक चराग बस अता कर/ना ले थाम हाथों में तू हाथ मेरा पर साथ कुछ दूर चलने से ना मना कर/

    बहुत ख़ूबसूरत रचना.. नाजुक ख़याल इतनी खूबसूरती से बयान हुये हैं इस ग़ज़ल में कि बस पढ़ कर मुँह से बेसाख्ता निकलता है वाह.!! . जितने सुन्दर भाव उतना ही बेहतरीन भाषा का सौंदर्य ...
    मंजु

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  4. शुक्रिया....
    वंदना जी...
    संजय भाई...
    संगीता जी...
    रचना जी...
    आप सभी का आभारी हूँ...
    ऐसे ही साथ देते रहिये और हौसला बढाते रहिये...

    मंजू जी....बेहद खूबसूरती से विश्लेषण किया है..
    क्या कहूँ.... बस दिल से दुआ ही निकलेगी आपके लिए..

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