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गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

मुश्किल-ए-जीस्त जब यूँ ही रवाँ होने लगी


 मुश्किल-ए-जीस्त जब यूँ ही रवाँ होने लगी 
ऐ अज़ल अब तू बता क्यूँ मेहरबाँ होने लगी 

वहशते-इश्क़ से फिर हम भी निकलने लगे 
जह्नो-दिल से याद जो उनकी धुआँ होने लगी 

जुस्तजू-ए-सुकूँ में जब दिन सारा कट गया 
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी 

शक्लो-सूरत थी नहीं, मैकप किया लाख का 
खाक को भी अब देख लो आसमाँ होने लगी 

लब हमारे चुप रहे औ उसने भी कुछ ना कहा 
राज़ की हर बात पर आँखों से अयाँ होने लगी 

बज़्म में हमने जब यूँ जिक्र उसका कर दिया 
यार सब कहने लगे,नज़्म जाविदाँ होने लगी 

बारिश-ए-हिज्र देखो दोनों जानिब खूब बरसी 
कुछ यहाँ होने लगी फिर कुछ वहाँ होने लगी 

"राज"तो बेबस रहे अब ये किसकी सुनते फिरें 
जंग दिल और धडकनों के दरमियाँ होने लगी

ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो


ना काफिर समझो मुझको ना मुसलमान समझो
अरे ये कम नहीं कि इंसान हूँ, मुझे इंसान समझो

और जिसके दिल में छुपी होती है सच्ची इबादत
उसे पत्थर में भी मिलता है फिर भगवान् समझो

रखो नीयत पाक और बढाओ भाई -चारे को तुम
इंसानियत को  तुम अपना दीन-ओ-ईमान समझो

नहीं तकसीम है करी इस कायनात ने भी यहाँ
तुम क्यों बाँटते हो मजहब में ऐ नादान समझो

मजलून पे हो जुल्म और खामोश रह जाते हो तुम
फिर भला क्यूँ खुद को मुल्क का सायबान समझो

माना की तल्ख़ होकर कह जाते हो तुम बहुत कुछ 
पर जेहन में जो बसे, वो है मीठी जुबान समझो 

नहीं होती बसर इंसान की कभी इंसान के बगैर 
जिंदगानी है मुश्किल डगर ना इसे आसान समझो

दो लफ्ज़ प्यार के दिन में बस तुम बोल लो गर सबसे
बाँच ली फिर तो तुमने यहाँ गीता-ओ -कुरान समझो

ये सच है, ऐ बज़्म, तुम्हे नहीं पसंद हैं '' राज ''
चलो फिर समझो पागल, वहशी या बदगुमान समझो 

फिरता हूँ अब मैं दर-ब-दर तन्हा


फिरता हूँ अब मैं दर-ब-दर तन्हा
जब से हुआ है मेरा ये घर तन्हा 

वो तो अपनी यादें भी ले कर गया 
कर गया मुझको इस कदर तन्हा  

मौसमे-हिज्र में शाखों पे गुल नहीं 
कैसे करे अब निबाह शजर तन्हा 

कोई गमख्वार नहीं मिलता मुझे 
हो गया जैसे अपना ये शहर तन्हा 

मंजिल का पता न सफ़र का निशाँ 
मिलती है हर इक रहगुजर तन्हा 

वक़्त-ए-रुखसत दोनों रोये बहुत 
थम गया लम्हा रुकी गज़र तन्हा 

कोई आये कफस से आज़ाद करे 
तकती हैं बुलबुलों की नज़र तन्हा 

साकी जिस मयकदे का रूठ गया 
हुई रिंदों की शाम-ओ-सहर तन्हा 

'' राज '' जज्ब की बयानी करें कैसे 
ये ग़ज़ल तन्हा इसकी बहर तन्हा