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शुक्रवार, मार्च 19, 2010

अहदे वफ़ा कुछ यूँ भी निभाते रहे


अहदे वफ़ा कुछ यूँ भी निभाते रहे 
जख्म खाके भी हम मुस्कराते रहे 

मौज आयी गर तो बिखर जाएगा 
ये जानके भी रेत पे घर बनाते रहे 

जिसकी आमद पे आँखे खुली रही 
सिवाय उनके सभी लोग आते रहे 

न की रकीबों से भी रकीबत हमने 
बस सबसे दुआ सलाम उठाते रहे 

कोई संजीदा शख्स मिला जब यूँ 
उसको भी सीने से हम लगाते रहे 

औ कैसे मेरी यादों के हर्फ़ मिटाए 
सुना शब् भर ख़त मेरे जलाते रहे

परिंदा हूँ कफस से डरता नहीं हूँ



सैयाद से मैं गिला रखता नहीं हूँ 
परिंदा हूँ कफस से डरता नहीं हूँ 

बेवफा हो जाना है फितरत तेरी 
शिकवा तुझसे मैं करता नहीं हूँ 

कुछ यादों का असीर तो हूँ मगर 
मयखाने में कभी मिलता नहीं हूँ 

आफताब हूँ हौसला ना आजमा 
शब्-ए-चराग सा जलता नहीं हूँ 

क़ज़ा का वक़्त जब है मुक्क़मल 
हर लम्हा इसलिए मरता नहीं हूँ 

बेख़ौफ़ से शजर की नस्ल है मेरी 
आंधी में तिनके सा उड़ता नहीं हूँ 

कायम रखता हूँ रुख आसमाँ सा 
मौसम सरीखा मैं बदलता नहीं हूँ