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बुधवार, मई 04, 2011

फलक पे जो ये घटा सुहानी हुई जाती है



उसकी जुल्फों से ही शैतानी हुई जाती है 
फलक पे जो ये घटा सुहानी हुई जाती है 

के चांदनी बिखर के ज़मीं तलक आ गयी 
खामोश दरिया में इक रवानी हुई जाती है 

किसी चेहरे पे जाके नहीं टिकती हैं आँखें 
वही इक सूरत बस पहचानी हुई जाती है 

चली जाए जो बे-धड़क छत पे वो अपनी 
मुए चाँद को बहुत परेशानी हुई जाती है 

पकड़ लूँ हाथ जो सरे-राह कहीं मैं उसका 
शर्म से बस फिर पानी-पानी हुई जाती है 

मैं उसे खुदा कहूँ या करूँ इबादत उसकी 
क्यूँ यार तुम्हे इतनी हैरानी हुई जाती है 

"राज़" करे ना गर कहीं जिक्र-ए-''आरज़ू''
ग़ज़ल में जैसे कोई बेईमानी हुई जाती है