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रविवार, जुलाई 25, 2010

खुदा हो तुम....


हम काफिरों के लिए दुआ हो तुम 
यूँ लगता है के जैसे खुदा हो तुम 

शाम तुम्हारे पलकों के साए में है 
सहर इक बहुत खुशनुमा हो तुम 

तुमसे मिलके शजर खुश होते हैं  
सहरा की धूप में ठंडी हवा हो तुम 

गुलों की रौनक तुमसे ही तो है 
चमन की राहत-ऐ-फजा हो तुम 

तुम्हारे नाम की भी कसमे हैं  
दीवानों की अहदे-वफ़ा हो तुम 

बुधवार, जुलाई 21, 2010

मेरा दिल ख्याली है....


मेरी सोच है संजीदा, मेरा दिल ख्याली है 
बेतरतीब सी  मैंने एक दुनिया बना ली है 

तुम आ जाओ और इनको छू लो होठों से 
मेरी ग़ज़ल तुम्हारे बगैर खाली--खाली है 

आँखों में समंदर पर तश्नगी बुझती नहीं 
किसने मेरी जानिब ये बद्दुआ उछाली है 

ये आईना भी कमबख्त वफ़ा नहीं करता 
इसने खुद में तो उनकी सूरत बसा ली है 

उनके दीदार को ये चला आता है शाम से 
चाँद भी अब हो गया, मेरे जैसा बवाली है 

इस बिस्तर में कमबख्त मुझे चुभा क्या 
उनकी नाक का नाथ या कान की बाली है 

और कल से हो रही जो बारिश थमी नहीं 
बादल फूटा है या उसने जुल्फ संभाली है 

नहीं देखते इस डर से सूरते-खूबसूरत को 
"राज" तेरी नजर बहुत ही काली-काली है 

मेरी शामो--सहर आरजू


मेरी शामो--सहर आरजू 
राहों में हमसफ़र आरजू 

जली थी कल भी तो यहाँ 
चराग सी रात भर आरजू 

जब हो जख्म यादों से तो 
बन रहती चारागर आरजू 

सेहरा की धूप में मिलती 
छाँव का हो शजर आरजू 

सुकून देती है, तन्हाई में 
लगे प्यारा सा घर आरजू 

सम्भाल आँखों में रखना 
जाए ना यूँ बिखर आरजू 

अहसासों के फूल जैसी है 
ख्वाबों से भी तर आरजू 

ग़ज़ल तो उससे ही रौशन 
"राज" की है बहर आरजू 

आँखों से जब कई रतजगे निकले


आँखों से जब कई रतजगे निकले 
तब जाके वस्ल के हसीं गुल खिले 

हया की दीवार फिर भी बनी रही 
यूँ तो हमसे बहुत खुल-खुल मिले 

मेरे शानो पे रख सर रोये क्या वो 
गुम हो गए फिर सब शिकवे गिले 

रूहों तक दोनों की साँसे उतर गयीं
रात भर हुए थे बस यही सिलसिले 

बारिशों में भीगे बदन रहे थे दोनों 
अरमान दिलों में जाने कितने पले 

सहर कनखियों से जब आई नजर 
ना हम छोड़ें ना छुड़ाकर के वो चले

कुछ यादें घर में रहने दे


कुछ यादें घर में रहने दे 
तस्वीरें नजर में रहने दे 

फलक ऊँचा हो,होता रहे 
दम-ख़म पर में रहने दे 

आँगन में चराग जला   
शाम,शजर में रहने दे 

आँखें सिर्फ, मंजिलों पर  
गर्द को सफ़र में रहने दे  


चमक उठे हर एक जर्रा 
रौशनी हुनर में रहने दे 

जख्म उनके हँस के सह 
दर्द ये जिगर में रहने दे 

ऊब जाएगा, लौटेगा गाँव 
चार दिन शहर में रहने दे 

वस्ल, लौटने की उम्मीद 
मौसमे-हिजर में रहने दे 

सोमवार, जुलाई 19, 2010

वक्ते-रुखसत अश्कों का समंदर ले चला


वक्ते-रुखसत अश्कों का समंदर ले चला
सहरा सा दिल और आँखें बंजर ले चला 

जाने फिर कब इनसे मुलाकात हो मेरी 
यादों में सूनी गलियां,तन्हा घर ले चला 

उससे शिकवे शिकायतें गिले छोड़ दिए 
दुआ में हाथ,सजदे में झुका सर ले चला 

पैरहन में ताउमर खुशबू बाकी रहने दी 
उसकी सिलवटों का मैं बिस्तर ले चला

वो पत्ते लिपट-२ के शजर से रोये बहुत 
जिन्हें कर जुदा तूफां का कहर ले चला 

गम की आबो-हवा में भी सुकूँ आता है 
इश्क में ये फलसफा मुख़्तसर ले चला 

जब थक गया मेरी ग़ज़लों का चाँद वो
मैं हर्फों में दश्त का सूना मंजर ले चला  

रविवार, जुलाई 18, 2010

उनकी यादों को तो बेधड़क आना है


उनकी यादों को तो बेधड़क आना है 
कमबख्त दिल अपना भी दीवाना है 

उसे बदली की ओट से देख लेता है 
ये मुआ चाँद भी बहुत ही सयाना है 

आफताब को कोई नहीं पूछता अब 
बस इन जुगनुओं का ही जमाना है 

जंगलों की आग शहरों में आ गयी है 
जीने के लिए जो औरों को दबाना है 

ये मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरद्वारे 
सब में रिश्वत का चलन पुराना है 

और जो वाईज बने फिरते हैं यहाँ 
शाम उनके हाथों में भी पैमाना है 

साहिल से क्या दुश्मनी कर लूँ मैं 
रेत पे ही जो घर अपना बनाना है 

इन सितारों को राजदार ना रखो 
इन्हें शाम को आना सुबह जाना है 

कौमी जूनून में दोनों जले बैठे हैं 
उधर है ख़ामोशी, इधर वीराना है

शाम ढले तो घर चले जाना 'राज' 
माँ का आँचल सुकूँ का ठिकाना है 

मेरी आरजू खुदा जैसी है


बद्दुआओं में दुआ जैसी है 
मेरी आरजू खुदा जैसी है 

धुंधली-२ शब् सी मिलती 
कभी बादे---सबा जैसी है 

मेरे दिल का साज भी है 
नगमो की सदा जैसी है 

गुलों का चटख रंग भी है 
कलियों की हया जैसी है 

बदली में चाँद सी लगे है 
तारों की कहकशां जैसी है 

हैं उसके नाम की कसमे 
किसी अहदे-वफ़ा जैसी है 

सोचता हूँ के बार बार करूँ 
खुबसूरत सी खता जैसी है 

बद्दुआओं में दुआ जैसी है 
मेरी आरजू खुदा जैसी है

चाँद ढल रहा है थोडा निखार दे दूँ


अपनी तन्हाई उसको उधार दे दूँ 
चाँद ढल रहा है थोडा निखार दे दूँ 

रुतें बहुत तप के गयीं है तेरे बाद 
क्यों ना इन्हें यादों की बहार दे दूँ 

हद तलक हैं इस दिल की तश्नगी 
चलो मयकदे चलूं इसे करार दे दूँ

उसकी याद आये आंसुओं के साथ  
ये लम्हा आँखों को खुशगवार दे दूँ 

मेरे बगैर कहीं उसका दिल ना लगे 
दुआ अपने दिल से ये बेशुमार दे दूँ 

वो आईना भी जो देखे तो मुझे पाए 
उसके चेहरे पे नक्श यादगार दे दूँ 

शम्म सी हो जाए सुलगती रहा करे 
मौसम-ए-शबनम का इंतजार दे दूँ 

मंगलवार, जुलाई 13, 2010

आरजू.....


मेरी गजलों में रहता तेरा चर्चा-ए-आम आरजू 
कुछ और नहीं आता नजर सुबहो-शाम आरजू 

तुझे मिलके जाने कैसी वहशत हो गयी मुझमे 
तेरी गलियों में फिरता हूँ बस बेमुकाम आरजू 

इक बार मेरा मुकद्दर होने का जो तू वादा कर दे 
सच कहता हूँ दे दूंगा मैं तो कुछ भी दाम आरजू 

सदके तेरे, इबादत तेरी, और तुझे ही खुदा कहूँ 
"हाँ" पर तेरी मैं तो हो जाऊं तेरा गुलाम आरजू 

देखा तुझे जिस रोज से है और कुछ भाता नहीं 
मिट गयीं हैं दिल की थीं जो भी तमाम आरजू 

कुछ और नहीं इसके सिवा, ऐ खुदा वो मांगता 
'राज' ने रखा बस अपनी दुआ का नाम आरजू

आरजू जैसी.....



हुयी जब ग़ज़ल खुशनुमा आरजू जैसी  
हाथ उठे औ निकली दुआ आरजू जैसी  

अब करे काफिर भी सजदा इन्ही पे ही 
के लगती है सूरत-ए-खुदा आरजू जैसी 

सहर होती है उसकी अंगडाईयों से ही
चलती है फिर बादे-सबा आरजू जैसी 

बन जाती है वो तहरीर खुबसूरत बहुत 
जिन हर्फों की हो इब्तिदा आरजू जैसी 

अल्फाज़ ''राज'' के हो जाएँ मुक्क़मल
के मिल जाए ग़ज़ल-सरा आरजू जैसी 

सोमवार, जुलाई 12, 2010

फुरसत में बनाया होगा


ये चेहरा खुदा ने फुरसत में बनाया होगा
फिर देख इसे खुद पे बहुत इतराया होगा 

जुल्फों की उधारी काली घटा से ली होगी 
आरिज के लिए महताब को मनाया होगा 

होठों पे तबस्सुम गुलाब से रख दी होगी 
आँखों की शक्ल में सागर सजाया होगा 

इस जबीं पे फरिश्तों ने सजदे किये होंगे 
काफिरों ने भी दुआ में हाथ उठाया होगा 

और किसी दम जो तुम चले गए होगे यूँ 
आईना भी देख कर तुम्हे शरमाया होगा 

उदास तीरगी भी कहीं छुप ही गयी होगी 
रुख से नकाब यूँ तुमने जब हटाया होगा 

क्या कहे अब अल्फाज़ "राज" के तुमको 
इन्हें ग़ज़ल कहने में पसीना आया होगा 
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This Ghazal sply written for this pic.

रविवार, जुलाई 11, 2010

ग़ज़ल


जगती आँखों का ख्वाब ग़ज़ल 
देखो लगती कैसी बेताब ग़ज़ल 

उसको मैं क्या नाम दूँ आखिर
मुझसे कहती माहताब ग़ज़ल 

किसी शाम जब याद यूँ आती 
फिर होकर बहती आब ग़ज़ल 

किसको खोजूं किस से कह दूँ 
बस दर्द का मेरे हिजाब ग़ज़ल 

मौसम की रवायत सी दिखती 
शामो-सहर का आदाब ग़ज़ल 

जिनके यहाँ अल्फाज़ महकते 
उनकी खातिर है गुलाब ग़ज़ल 

जरा सी पी लेते तो बहके रहते 
"राज" की जामो-शराब ग़ज़ल 

शनिवार, जुलाई 10, 2010

कहीं उलझे हैं बहुत के नजर नहीं आते


कहीं उलझे हैं बहुत के नजर नहीं आते 
आजकल आप तो हमारे घर नहीं आते 

रोज जाक़े बैठते तो हैं बज्म-ए-गैर में 
दानिश्ता ही क्या मेरे इधर नहीं आते 

तन्हाइयों का कैसा खौफ भर गए तुम 
सुकूँ के लम्हे अब इस शहर नहीं आते 

शजर जो आँधियों में झुका नहीं करते 
उनकी शाखों पर कभी समर नहीं आते 

सब पे नहीं होता खुदा का रहमो-करम 
मेरी जिद पे चाँद--तारे उतर नहीं आते 

वो करते तो हैं वादा शाम ढले आने का 
पर उनके ख्वाब भी रात भर नहीं आते 

पत्थरों में नहीं है दिल ये बात गलत है 
कोहसारों से वरना समन्दर नहीं आते 

हवाओं से अदावत करके भी सलामत 
चरागों के जैसे सब में हुनर नहीं आते 

क्यों मगरूर हो"राज"तुम इन लफ़्ज़ों पे 
क्या कहते ग़ज़ल, ख्याल गर नहीं आते

तेरा गम तुझी से छुपा कर के रोये


तेरा गम तुझी से छुपा कर के रोये 
कभी याद कर के भुला कर के रोये 

जफा उसने हमसे निभाई बहुत थी 
के गैरों से फिर वो वफ़ा कर के रोये 

चरागों से उल्फत रही जब न बाकी 
भरी तीरगी में बुझा कर के रोये 

अयादत मिरी अब करे कौन यारों 
यही गम जेहन में सजा कर के रोये 

है रुसवा बहर और अलफ़ाज़ गीले 
इन्ही पे ग़ज़ल गुनगुना कर के रोये 

यूँ समझा न कोई मेरा हाले-दिल जब 
खुदी हम, खुदी को, सुना कर के रोये 

थे काफ़िर सरीखे तो कुछ वो सही थे 
यूँ सजदा, इबादत, खुदा कर के रोये 

मिरी इल्तिजा थी, जरा देर रुकते 
हुआ ना ये उनसे, जता कर के रोये 

ख्वाबों ख्यालों में रह-रह के आये 
यही इक रही जो खता कर के रोये 

हिजर के ये मेले लगें ना कहीं पर 
यही"राज"सबको दुआ करके रोये 
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Bahar....122 122 122 122

बुधवार, जुलाई 07, 2010

सहर आँखों में भर लायेंगे यारों


सहर आँखों में भर लायेंगे यारों 
के ख्वाबों में असर लायेंगे यारों

अभी तो हमने समझा है ग़ज़ल को 
कभी हम भी बहर लायेंगे यारों

अयादत को चले आयेंगे वो तो 
नजर में हम हुनर लायेंगे यारों

शहर अब अजनबी कैसे रहेगा 
जो हम सबकी खबर लायेंगे यारों

शजर को यूँ नहीं तन्हा रखेंगे 
रुतों से इक समर लायेंगे यारों

नहीं तूफां से घबरा कर रुके जो 
वही खुद में जिगर लायेंगे यारों
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1222 1222 122....बहर 

मंगलवार, जुलाई 06, 2010

ना शिकवे रख ना गिले रख


ना शिकवे रख ना गिले रख 
दरमियाँ कुछ ना फासले रख 

तन्हा जिन्दगी नहीं कटती है 
मिलने जुलने के सिलसिले रख 

देख दस्तक बहारों की हुई है 
खिड़की-दरवाजे ज़रा खुले रख

तीरगी फिर तीरगी नहीं होगी 
चराग घर में दो चार जले रख 

आँखों से ही सही, जवाब दे ना 
होठों को गर चाहे तो सिले रख 

हिज्र में काम बहुत आयेंगे "राज" 
साथ उनकी यादों के काफिले रख

चाँद भी मुआ रात भर बौराये फिरे


कुछ यूँ वो अपना गम भुलाये फिरे
दर्द में भी रहके जो मुस्कराये फिरे 

ये शैख़ साहिब क्या समझाए फिरे 
खुद भी शाम मयकदे में आये फिरे 

उसको कमबख्त लोग दीवाना कहें 
जो किसी के इश्क से उकताये फिरे 

शाम जो बाम पे उसे देख ले गर ये 
चाँद भी मुआ रात भर बौराये फिरे 

अल्लाह बख्शे जिन्हें अदा-ओ-हुस्न
वो तो पानी में भी आग लगाये फिरे 

नाम मेरा पढ़ ले ना ज़माना उनपे 
चेहरा नकाब में ही वो छुपाये फिरे

रविवार, जुलाई 04, 2010

हमे मौसमों सा बदलना नहीं आया


हमे मौसमों सा बदलना नहीं आया 
यूँ ज़माने के साथ चलना नहीं आया 

उसका जी भरा खिलौना नया माँगा 
हम थे के कभी मचलना नहीं आया 

इक बार उसे खुदा दिल से कह दिया 
फिर किसी दर पे टहलना नहीं आया 

उसकी ख़ुशी में बस खुश होते गए थे 
इस उलझन से निकलना नहीं आया

उसने गैरों से कह के गम हलके किये 
हमे अश्कों सा  भी ढलना नहीं आया 

'राज' संग नहीं जो टिक पाते मुकाबिल 
जफा की आँधियों में जलना नहीं आया 

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

अहदे-आशिकी क्या है


उन्हें पता ही नहीं,अहदे-आशिकी क्या है 
क्या चीज दिल है भला, दिल्लगी क्या है 

तोड़कर दिल ये मेरा और हँसना उनका 
बात फिर यारों लगती अब नयी क्या है 

है पुरसुकून सहर और है शाम रौशन सी 
मिरी नजर में मगर कुछ, तीरगी क्या है 

उफक के साए से है उस आफताब तलक 
सहर-ओ-शब् के सिवा ये जिंदगी क्या है 

वो घर मिट्टी के और वो टूटे से खिलौने 
बच्चों की इस से जुदा और ख़ुशी क्या है 

बहुत वहम था मुझे, के उसे मैं भूल गया 
निगाह फिर भी मेरी माह पे लगी क्या है 

दुआ के नाम पे करी कितनी बद्दुआ मैंने 
खबर नहीं के खुदी क्या है बेखुदी क्या है

जाम रखें हैं बहुत,और हैं बाहें साकी की
पर जो मिटती ही नहीं, तशनगी क्या है 

उनकी यादों का तरन्नुम है रख्ते-सफ़र
हमसफ़र पूछेंगे अब ये मौशिकी क्या है 

बातें कुछ दर्द की हैं कुछ अश्कों की बहर 
मेरी ग़ज़लों में यही और ताजगी क्या है 

शजर के जैसे कर निबाह जिंदगी अपनी 
ना सोच "राज" मिला क्या है बदी क्या है

मेरे दिल में हैं कितने गम दोस्तों


मेरे दिल में हैं कितने गम दोस्तों 
अब सुनाये तुम्हे क्या हम दोस्तों 

यूँ तो बरसीं शहर में बरसातें बहुत 
तश्नगी फिर भी हुई ना कम दोस्तों 

हुए बेताब कितने वो चाँद और तारे 
शाम से शब् थी कितनी नम दोस्तों 

वक़्त-ए-रुखसत थमीं ना आँखें मेरी 
बहुत बेबस सा था वो अलम दोस्तों 

उनकी गलियां तो छूटीं पर यादें नहीं 
हुए किस्मत के ये भी सितम दोस्तों 

इश्क की राहों में ना मंजिल मिली 
तन्हा फिरे कदम दर कदम दोस्तों 

उसे टूट कर चाहा या चाह करके टूटे  
उमर भर को रहा फिर भरम दोस्तों