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सोमवार, जुलाई 19, 2010

वक्ते-रुखसत अश्कों का समंदर ले चला


वक्ते-रुखसत अश्कों का समंदर ले चला
सहरा सा दिल और आँखें बंजर ले चला 

जाने फिर कब इनसे मुलाकात हो मेरी 
यादों में सूनी गलियां,तन्हा घर ले चला 

उससे शिकवे शिकायतें गिले छोड़ दिए 
दुआ में हाथ,सजदे में झुका सर ले चला 

पैरहन में ताउमर खुशबू बाकी रहने दी 
उसकी सिलवटों का मैं बिस्तर ले चला

वो पत्ते लिपट-२ के शजर से रोये बहुत 
जिन्हें कर जुदा तूफां का कहर ले चला 

गम की आबो-हवा में भी सुकूँ आता है 
इश्क में ये फलसफा मुख़्तसर ले चला 

जब थक गया मेरी ग़ज़लों का चाँद वो
मैं हर्फों में दश्त का सूना मंजर ले चला  

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ग़ज़ल...गज़ब का लिखते हैं

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  2. वाह..वाह!
    बहुत दिनों के बाद एक सुन्दर गजल पढ़ने को मिली!

    जवाब देंहटाएं
  3. जनदुनिया जी.......शुक्रिया ......नियमित वक़्त देने के लिए....

    संगीता जी.............शुक्रिया ..........सब आप लोगों की दुआ है....

    रूप भाई साहब..........शुक्रिया........इस हौसला अफजाई के लिए ......

    संजय भाई साब.........बहुत दिनों बाद आये......आभार ...

    जवाब देंहटाएं

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