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शनिवार, मई 28, 2011

आंसुओं में ही इक हंसी मिल जाए



आंसुओं में ही इक हंसी मिल जाए 
काश मुझे ऐसी ही खुशी मिल जाए 

एक मुद्दत से तरसी हैं आँखें बहुत 
बस इक जरा सी रौशनी मिल जाए 

मैं पागलों की तरह फिरता हूँ यहाँ 
शायद सुकूँ की जिंदगी मिल जाए 

कहती है वो अदू को बेहतर मुझसे 
आईने देखूं,शायद कमी मिल जाए 

कयामत तलक गुनाह कौन झेले 
के जो भी है सज़ा यहीं मिल जाए 

काफ़िर की दुआ पहुंचे खुदा के दर 
मानो आसमाँ से जमी मिल जाए 

अपने नसीब पे ''राज़'' भी करें फक्र 
पूरी जो वो 'आरज़ू' कभी मिल जाए 

रविवार, मई 22, 2011

उसे इंकार हो जितना वो करता रहे



के उसे इंकार हो जितना वो करता रहे 
दिल है के दिन रात उसपे ही मरता रहे 

मेरा इश्क तो है, मानिंद-ए-खुशबू कोई 
समेटूं जितना ये उतना ही बिखरता रहे 

मुझे पता है उसके दिल में है क्या छुपा 
सामने गर मुकरता है तो, मुकरता रहे 

रोज़ आयें उसकी हसरत ले के ये सितारे 
मुआ चाँद है के चौदहवीं तक संवरता रहे 

"राज़" लिख दें नाम ग़ज़ल में "आरज़ू"
सच है के हर लफ्ज़ फिर निखरता रहे 

मंगलवार, मई 17, 2011

बारिशों के मौसमों में पतंगें उडाई जाएँ



चलो के किस्मतें कुछ यूँ आजमाई जाएँ 
बारिशों के मौसमों में पतंगें उडाई जाएँ

उसकी इबादत में खुद को लगा रखो तुम 
कब जाने खुदा तक, तुम्हारी दुहाई जाएँ 

गिला-शिकवा ये जफा-वफ़ा क्या है यहाँ 
ऐसी बातें तो मुहब्बत में ना उठाई जाएँ 

कौन कहता है के वो भूल गया है मुझको 
अरे हिचकियाँ देखो आई जाएँ आई जाएँ 

तू मुझसे मैं तुझसे खफा हैं तो हुआ करें 
तमाम शहर को रंजिशें ना दिखाई जाएँ 

जब ना हो पूरी कोई "आरज़ू" तेरी "राज़"
अपनी हसरतें आईने को ही सुनाई जाएँ 

शनिवार, मई 14, 2011

अब जिंदगी इम्तेहान जैसी है



मुझे लगती बियाबान जैसी है 
अब जिंदगी इम्तेहान जैसी है 

ज़मीं की खाक है औकात मेरी  
वो लड़की तो आसमान जैसी है 

फितरते-दिल को क्या कहिये 
किसी परिंदे की उड़ान जैसी है 

हर रोज दर्द ले के बढ़ जाती है  
अब ये सांस भी लगान जैसी है 

तुझे सोचता हूँ तो टूट जाता हूँ 
तेरी याद तो बस थकान जैसी है 

बिना सिक्कों से ये चलती नहीं 
के रिश्तेदारी भी दुकान जैसी है 

मौत तो मुक्क़मल ही हैं यहाँ पे 
अपनी रूह ही बे-ईमान जैसी है 

माँ की दुआ ही परदेस में यारों 
सुकून-ओ- इत्मिनान जैसी है 

'राज़' कहें क्या 'आरज़ू' अपनी 
यहाँ पे वही तो पहचान जैसी है 

शुक्रवार, मई 13, 2011

इश्क से जब भी वो उकताए फिरेंगे



बेचैन रहेंगे कुछ, कुछ घबराए फिरेंगे 
यूँ इश्क से जब भी वो उकताए फिरेंगे 

काज़ल से करेंगे वो शामो के करिश्मे 
चाँद को चेहरे से फिर चमकाए फिरेंगे 

सखियाँ जो छेड़ देंगी कभी नाम से मेरे 
छुप जायेंगे कहीं पे और शरमाये फिरेंगे 

मौसम की रंगत होगी होठों से ही उनके
पैरहन की खुशबू से सब महकाए फिरेंगे 

रखेंगे नाम-ए-'आरज़ू' ''राज़'' जो उनका 
सच है के हर्फ़-ए-ग़ज़ल बल खाए फिरेंगे 

बुधवार, मई 04, 2011

फलक पे जो ये घटा सुहानी हुई जाती है



उसकी जुल्फों से ही शैतानी हुई जाती है 
फलक पे जो ये घटा सुहानी हुई जाती है 

के चांदनी बिखर के ज़मीं तलक आ गयी 
खामोश दरिया में इक रवानी हुई जाती है 

किसी चेहरे पे जाके नहीं टिकती हैं आँखें 
वही इक सूरत बस पहचानी हुई जाती है 

चली जाए जो बे-धड़क छत पे वो अपनी 
मुए चाँद को बहुत परेशानी हुई जाती है 

पकड़ लूँ हाथ जो सरे-राह कहीं मैं उसका 
शर्म से बस फिर पानी-पानी हुई जाती है 

मैं उसे खुदा कहूँ या करूँ इबादत उसकी 
क्यूँ यार तुम्हे इतनी हैरानी हुई जाती है 

"राज़" करे ना गर कहीं जिक्र-ए-''आरज़ू''
ग़ज़ल में जैसे कोई बेईमानी हुई जाती है 

सोमवार, मई 02, 2011

बे-बात पर ही खफा होगा ''राज़''



बे-बात पर ही खफा होगा ''राज़''
या शायद भूल गया होगा ''राज़''

नाम का ही तो काफिर था बस 
दिल में उसके खुदा होगा ''राज़''

वो शाम छत पे टहल गयी होगी 
चाँद सहर तक जगा होगा ''राज़''

हिचकियाँ रात भर आती रहीं यूँ 
किसी ने याद किया होगा ''राज़''

चल आईने से ही कुछ जिक्र करें 
उसको कुछ तो पता होगा ''राज़''

''आरज़ू'' को सबसे छुपा के रख ले 
नजर लगने का शुबहा होगा ''राज़''