के अक्ल लगती है ठिकाने से
दुनिया भर के फरेब खाने से
कुछ लोग हैं यहाँ सयाने से
और कुछ हैं मुझ दीवाने से
इक खटास सी आ जाती है
यहाँ रिश्तों को आजमाने से
ये मुहब्बत है कोई खेल नहीं
वो ना समझेगी, समझाने से
मुश्किलें जिंदगी की अजीब हैं
और उलझती हैं, सुलझाने से
मेरे ये लफ्ज़ खिल उठते हैं
एक जरा तेरे मुस्कराने से
सोच सोच के थक गया हूँ मैं
चली आ, ना किसी बहाने से
रुते-हिज्र में फर्क नहीं होता
इन मौसमों के आने जाने से
वो आरज़ू पूरी हो "राज़" की
इक यही है आरज़ू जमाने से