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बुधवार, सितंबर 28, 2011

अब नजर नहीं आता दस्तूर-ए-रहनुमाई यारों



भर गयी है इन्सां में कुछ इस कदर बुराई यारों 
अब नजर नहीं आता दस्तूर-ए-रहनुमाई यारों 

और जो क़त्ल हुए थे कल रात मजमे में देखो 
कोई और नहीं वो, थे हमारे--तुम्हारे भाई यारों 

चनार के सब बाग़ हैं झुलसे और चनाब रोये है 
किसने वादी में फिर से यूँ दहशत मचाई यारों 

संगीनों के साए में तो अपना साया भी न दिखे 
क्या खुदा रहा वो और क्या उसकी खुदाई यारों 

बस बात मजहब की, जबाँ की चलती है वहां 
आता नहीं नज़र कहीं पे गोशा-ए-भलाई यारों 

सियासतदानों से उम्मीद करना भी बेमानी है 
क्या अब तलक कभी उन्होंने है निभाई यारों 

कहकहों से घर की वीरानियाँ हों फिर से रौशन 
ले आओ तुम ही कुछ भाई-चारे की दवाई यारों 

*गोशा-ए-भलाई - अच्छा करने का अंदेशा 

मंगलवार, सितंबर 20, 2011

रहे हम बस फकीर के फकीर देखिये



इश्क में रांझे की ये तकदीर देखिये 
मिली नहीं कभी उसको हीर देखिये 

शबे-रुखसत को आसमाँ भी बरसा 
किस किस को हुई थी, पीर देखिये 

ग़ज़ल फिर बेहद खूबसूरत सी लगे 
उसके जिक्र से बनी तहरीर देखिये 

उम्रभर दुआ में बस उसे माँगा किये 
रहे हम बस फकीर के फकीर देखिये 

बात जज्बों से पागलपन तक जाए 
आईने में जो उसकी तस्वीर देखिये 

मुहब्बत की असीरी भी अच्छी लगे 
लगे अच्छी जुल्फ की जंजीर देखिये 

वफ़ा के जज्बे पे कुर्बान जाइए "राज़" 
कहते हैं यही ग़ालिब-ओ-मीर देखिये

उससे जो रुखसत की घडी थी



ना जाने कैसी अजीब बड़ी थी 
उससे जो रुखसत की घडी थी 

मेरे बगैर उदास ना रहना तुम 
शर्त उसने तो रख दी कड़ी थी 

इक तरफ उसकी ख़ुशी तो थी 
इधर दिल को अपनी पड़ी थी 

आंसुओं का सैलाब थमा नहीं 
जबके पूरी अभी रात खड़ी थी 

कब तलक अश्क पैहम थमते
चश्म तो बस खामोश अड़ी थी 

सुर्ख शबनम हमारी देख कर 
सहर उस शब् से खूब लड़ी थी

जिंदगी की राह में कई इम्तेहान भी आयेंगे



जिंदगी की राह में कई इम्तेहान भी आयेंगे 
उसे पा लेने और खोने के गुमान भी आयेंगे 

इस मरासिम पे ज़माने को भी ऐतराज़ रहा 
कुछ लोग उसके--मेरे दरमियान भी आयेंगे 

ज़र्रा ज़र्रा ज़मीं का जब करेगा रक्स यूँ ही 
देखने को दूर कहीं से आसमान भी आयेंगे 

इश्क की राह आसान समझ ना मुसाफिर 
बहारें भी मिलेंगी तो बियाबान भी आयेंगे 

संजीदगी शहर में बढ़ जायेगी जिस रोज 
देखना फिर कुछ लोग परेशान भी आयेंगे 

लफ्ज़ हमारे होंगे और लहजा उसका होगा 
अबके ग़ज़ल में तो ऐसे सामान भी आयेंगे

शनिवार, सितंबर 17, 2011

ग़ज़ल बना दी इश्क, मुहब्बत, रुसवाई ने



मीठा मीठा इक दर्द उठाया है तन्हाई ने 

जिक्र जो उसका छेड़ दिया है पुरवाई ने


हँसता है गर दरिया, खुश ना जानो तुम 

जाने कितना दर्द छुपा रखा है गहराई ने


हिचकी भी मुझको अब ना आती उतनी 

याद भी कम करवा दी शायद मंहगाई ने 


ये चाँद बहुत कम आँगन में आता है मेरे 

जाने क्या-२ सिखलाया है शब् हरजाई ने 


हमको लफ़्ज़ों की किमियागीरी नहीं पता 

ग़ज़ल बना दी इश्क, मुहब्बत, रुसवाई ने

बुधवार, सितंबर 14, 2011

खुशगवार से गम-गुज़ारों की बात है



शब्-जुगनू, चाँद-सितारों की बात है 
शायद इश्क के सब मारों की बात है

बयान लफ़्ज़ों में कर तो दूँ समझोगे 
ये मुहब्बत है यार इशारों की बात है

अब के रुत में फिर अजब रंग होगा 
सेहरा की जानिब बहारों की बात है 

उसका मेरी जिंदगी में होना कुछ यूँ 
जैसे दरिया के दो किनारों की बात है 

हिज्र, तन्हाई, ये अश्क और रुसवाई 
बस मैं और मेरे कुछ यारों की बात है 

मेरी ग़ज़ल के किरदारों में देख लेना 
खुशगवार से गम-गुज़ारों की बात है 

रविवार, सितंबर 11, 2011

तेरी दुआ से कितनी बरकत है आजकल




शब् की तो अच्छी सियासत है आजकल
घर को तीरगी से ही मुहब्बत है आजकल

उसे भूल चुके हैं पर हिचकियाँ नहीं जातीं
दिल की ये भी अजीब हरकत है आजकल

ख्वाब. खलिश, चुभन, दर्द, यादें, बेबसी
इश्क में लगी कैसी तोहमत है आजकल

सोते से बेसबब ही जाग पड़ता हूँ मैं यूँ ही
नींद में जाने कैसी ये वहशत है आजकल

और हमारे आँगन में भी दरिया बरसा करे
पर खुदा की कहाँ हमपे रहमत है आजकल

अपनी परेशानी में ही इजाफा करते हैं बस
देख तेरी दुआ से बहुत बरकत है आजकल

शनिवार, सितंबर 10, 2011

आँखें......


दिल के दर्द-ओ-गम का बयान हैं आँखें
कभी ज़मीं तो कभी आसमान हैं आँखें

जाने क्या क्या अफसाने लिखे हैं इनमे
कौन कहता है इबारत आसान हैं आँखें

कुर्बत के लम्हों में खिलते गुलाब के जैसी
हिज्र के मौसम में होती बियाबान हैं आँखें

जब से गया है वो मरासिम तोड़ कर सारे
उसकी याद में रहती बहुत परेशान हैं आँखें

जब तक हैं खामोश तो खामोश ही रहेंगी
जिद पे आ जाएं तो फिर तूफ़ान हैं आँखें

गुरुवार, सितंबर 08, 2011

मेरी तरह वो शख्स भी तन्हा बहुत है



ये बात और है के आजकल हँसता बहुत है 
पर मेरी तरह वो शख्स भी तन्हा बहुत है 

उसकी इबादत करूँ तो क्यूँ हैराँ है ज़माना
उसका चेहरा जो खुदा से मिलता बहुत है 

उसके इंतज़ार में तो यूँ सदियाँ गुजार देंगे 
उसकी याद का हमे इक-2 लम्हा बहुत है 

मजबूरे-हालात था जो वफ़ा न कर सका 
मेरी निगाह में मगर वो अच्छा बहुत है 

"तुम मेरी जिन्दगी से कहीं जा नहीं रहे"
उसका मुझसे इतना बस कहना बहुत है 

ग़ज़ल के लिए 'राज़' नए उन्वाँ क्या लायें 
बस इक उसका नाम ही लिखना बहुत है 

शुक्रवार, सितंबर 02, 2011

दीवाने को तो सब अच्छा लगे है



हर इक चेहरे में तेरा चेहरा लगे है 
हिज्र में मुझको सब सेहरा लगे है 

मेरी हर सदा नाकाम लौट आयी
मुझे तो ये खुदा भी बहरा लगे है 

जाग उठा हूँ अचानक सोते-सोते 
शायद तेरी याद का पहरा लगे है 

खारों से रफाकात हुयी है जब से 
इन फूलों का ज़ख्म गहरा लगे है 

इस किनारे से उस किनारे तलक 
ये दरिया भी बहुत प्यासा लगे है 

उसकी हंसी पे मत जाइए "राज़"
दीवाने को तो सब अच्छा लगे है