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बुधवार, जून 30, 2010

इक खुबसूरत सी किताब लगती हो


इक खुबसूरत सी किताब लगती हो 
चमन का महकता गुलाब लगती हो 

सोचता हूँ क्या नाम दूँ मैं अब तुमको 
चलो कहता हूँ के, माहताब लगती हो 

कभी ख़ुशी हो तो होठों पे खिलती हो 
गम में जो बरसे वो सैलाब लगती हो 

शाम जुल्फों के रंगीन साए में पाले 
सहर का खुशनुमा आदाब लगती हो

और वो इबादत में यूँ हाथ उठाने नहीं 
काफिरों को खुदा का जवाब लगती हो 

रविवार, जून 27, 2010

फिर वो मौसम सुहाने याद आये


यूँ ही थे साथ जो गुजरे ज़माने याद आये 
हमको फिर वो मौसम सुहाने याद आये 

जख्मो की जब सौगात हुई नसीब अपने 
तुम्हारे हाथों के मरहम पुराने याद आये 

मेरा इंतजार और उसपे तुम्हारा ना आना 
बारिश तो कभी शाम के बहाने याद आये 

जफा-ओ-वफ़ा की मैं और मिसाल क्या दूँ 
कुछ शम्में याद आयीं,  परवाने याद आये 

दवा से इलाजे-दर्दे-दिल हुआ न मुक्क़मल
साकी की आँखों से मिले पैमाने याद आये 

तेरे बगैर जिन्दगी की तो तहरीर ना बनी 
याद आये तो तन्हा से अफ़साने याद आये 

"राज" क्या बिसात भला इश्क में है तेरी 
सोचा तो मजनूँ से कई दीवाने याद आये 

शनिवार, जून 26, 2010

लहजे में खुद्दारी रख


दूर सब दुनियादारी रख 
बस लहजे में खुद्दारी रख 

आसमान से डरना क्या 
बस उड़ने की तैयारी रख 

जिसकी आँखों से पी ले तू 
फिर उससे ना गद्दारी रख 

गमे हिज्र को मान के नेमत 
फुरकत में जीना जारी रख 

जफा मिले तो वफ़ा निभा 
सोच ये अपनी भारी रख 

सफे-दोस्तां साथ ना दे तो 
अदू से ही दिलदारी रख 

जो प्रीत की तुझसे रीत निभाए 
उन पांवों में जन्नत सारी रख 

हद-ए-दर्द जब बढ़ जाए "राज" 
तैयार ग़ज़ल इक प्यारी रख 

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सफे-दोस्तां----मित्र मंडली,

अदू----दुश्मन 

गुरुवार, जून 24, 2010

हमे भी देखकर मुस्कराया करो


हमे भी देखकर मुस्कराया करो 
मिलने हमारे घर भी आया करो 

सबकी नजरें सही नहीं लगती 
यहाँ वहां मत आया जाया करो 

सफ़र तय करते उम्र बीतती है 
दूर कहीं मंजिले ना बनाया करो 

लोग पागल ही समझेंगे तुम्हे 
मुझे सोच के ना शरमाया करो 

अब सबसे दुश्मनी क्या करना 
दिल नहीं हाथ तो मिलाया करो 

अँधेरे घर में अच्छे नहीं होते हैं 
शाम हो तो चराग जलाया करो 

काफ़िरो के हक दुआ नहीं होती 
उनके लिए भी हाथ उठाया करो

बुधवार, जून 23, 2010

शब् के जख्मों को कुछ सहलाना चाहिए


शब् के जख्मों को कुछ सहलाना चाहिए 
जो शाम बिखरे तो चराग जलाना चाहिए 

नाम इश्क की जमात में लिखवा दिया है 
फिर मौसमे-दर्द में भी मुस्कराना चाहिए 

थक जाओ कभी जब हवा नापते-नापते 
अपने घर तुम्हे फिर लौट जाना चाहिए 

और खुदा--खुदा कहने से कुछ नहीं होता 
सच्ची इबादत हो तो सर झुकाना चाहिए 

छोड़ दो ये नफे-नुकसान की बातें करना 
इस दिल को तो यूँ ही आजमाना चाहिए

सोचती होगी वो कासिद को फिर देखके 
इस बार ख़त उनका जरुर आना चाहिए 

चाँद तारों तक तो अपनी पहुँच नहीं होती 
उनकी ही गली का चक्कर लगाना चाहिए 

जो तुम्हारी जफा के बदले वफ़ा किया करे 
"राज"उनको पलकों पे ही बिठाना चाहिए

शाम तन्हा सहर तन्हा


शाम तन्हा सहर तन्हा
ख्वाबों का सफ़र तन्हा

शाखों पे पत्ते पीले पीले 
गुल तन्हा शजर तन्हा

सलामो दुआ होती नहीं 
कैसा सारा शहर तन्हा

जाऊं रखूं उम्मीद क्या 
मिलेगा जब घर तन्हा 

परिंदे अब किसे दें सदा
रिहाई ढूंढे नजर तन्हा

रविवार, जून 20, 2010

खूबसूरत ग़ज़ल हो जाए....


तुम्हारी याद का गर एक भी पल हो जाए 
समझो फिर तो खूबसूरत ग़ज़ल हो जाए 

जो इश्क का सामान अपने घर रखता हो 
सौदा बेवफाई का हो तो वो पागल हो जाए 

तुम भी खामोश और हम भी रहे चुप जो 
फिर कहो कैसे कोई मसला हल हो जाए 

बहुत हुए जीने को मुझे कुछ लम्हे पुराने 
सोचता हूँ के क्यूँ कोई रद्दो-बदल हो जाए 

माना के हूँ काफिर पर डरता भी बहुत हूँ 
मुलाकात ना खुदा से रोजे-अजल हो जाए 

शुक्रवार, जून 11, 2010

दिल का हाल लिख रहा हूँ


ख्वाब लिख रहा हूँ मैं ख्याल लिख रहा हूँ 
ग़ज़ल में अपने दिल का हाल लिख रहा हूँ 

मैं हूँ काफिर या हूँ, मुसलमाँ मेरे अहबाबों 
उलझनों में उलझा, ये सवाल लिख रहा हूँ 

घर के चराग ने जब लगा दी आग घर को 
तूफां से हो अब कैसा मलाल लिख रहा हूँ 

कैसे मैं अपने आप को देता हूँ धोखा यहाँ 
लबों पे हंसी आँखों में शलाल लिख रहा हूँ 

ये दीवारों दर मेरी ऩजर आती हैं बेगानी सी 
अपने ही घर से है हुआ बवाल लिख रहा हूँ 

लौट कर नहीं आते वो लम्हे जो गुजर जाएँ 
जाने क्यूँ मगर उम्मीदे-विसाल लिख रहा हूँ 

और वो है के कहता है अब भूल जाओ मुझे 
इक यही नहीं होता कारे-मुहाल लिख रहा हूँ 

सोते सोते रातों को बस जाग जाता हूँ "राज" 
इंतजार किसी का यूँ सालों साल लिख रहा हूँ 
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कारे-मुहाल--Difficult work

बुधवार, जून 02, 2010

खो गया है मेरी दीवारों दर का पता




खो गया है मेरी दीवारों दर का पता 
नहीं मिलता मुझे मेरे घर का पता 

यूँ चल तो रहा हूँ दुनिया की भीड़ में 
ना मंजिल का पता ना सफ़र का पता 

जो मिटा दे यहाँ शब् की तासीर को 
ले के आये कोई ऐसी सहर का पता 

ज़माने को क्या फ़िक्र तन्हाई की मेरी 
ढूंढे कौन दश्तो में तन्हा शजर का पता 

यूँ देखकर के आइना मुझे हैंरान क्यूँ है 
क्या मुझमे है किसी वीराँ शहर का पता 

अपने माजी का उसपे क्या इल्जाम दूँ 
रखता हूँ गुमनाम दर्दे-जिगर का पता 

ऐसे आने से तो बहतर था न आना तेरा




कुर्ब के दो लम्हे देके फिर वो जाना तेरा
ऐसे आने से तो बहतर था न आना तेरा

बड़ा परीशां करता है ये मंजर आज हमे 
घटाओं के साथ जुल्फों का लहराना तेरा 

हासिल मुझे वफ़ा का मेरी शायद ये रहा 
मेरे अश्क बहे और हुआ मुस्कराना तेरा 

हैरत में कर गयी रफाकत की ये भी अदा 
बज्म में साथ रकीब के मुझे बिठाना तेरा 

मेरी तश्नगी की कभी कदर ना हुई तुझसे 
गैरों की लिए रहे जाम-ओ-मयखाना तेरा 

मेरी किस्मत में लिख दी है तन्हाई कैसी 
हर सांस में चलता है अब अफसाना तेरा 

तेरी फितरत है जफा तो जफा कर ले तू 
'राज' तो रहेगा बस उम्र भर दीवाना तेरा

मंगलवार, जून 01, 2010

और वो हमको क्या समझे


हम उनको देखो क्या समझे थे और वो हमको क्या समझे 
जिन्हें दिल का खुदा रखा था...... वो हमको बेवफा समझे 

मेरी महफ़िल में आकर भी......वो साथ गैरों के बैठे हैं 
मेरा दिल बस जलाना है....हम इसको भी अदा समझे 

इन यादों के चरागों से...अब घर में रौशनी क्या हो 
बहुत बेख़ौफ़ तूफां है ये.....हम तो बादे सबा समझे 

रवानी अश्कों की मेरे...कभी जब थम सी जायेगी 
वो दिन होगा अजल का और आएगी क़ज़ा समझे 

सितारे टूट कर के आसमाँ से......जब गिर रहे होंगे 
कुबूल होने लगी होगी..उनकी इक और दुआ समझे 

यहाँ सब कुछ हारने वाला......सच में जीत जाता है 
इश्क ऐसी तिजारत है....के दिल खोया नफा समझे 

जब तक के नहीं मिटता...शम्मा उसको नहीं मिलती 
नाम रखा है परवाना...... तो खुद को तू जला समझे 

अजब संजीदगी उसने.......मेरी गलियों में भर दी है 
खिजा की रुत में गुल देखो..फ़ज़ा समझे फ़ज़ा समझे 

उसकी आँखों में अब भी तो...ख्वाब मेरा झलकता है 
ग़ज़ल वो अपनी कहता है....लोग लहजा मेरा समझे 

है फितरत दिल की ये अपने........ज़माने से जुदा रहना 
के जख्म खाकर भी रहते हैं, "राज" तो खुशनुमा समझे