इक खुबसूरत सी किताब लगती हो
चमन का महकता गुलाब लगती हो
सोचता हूँ क्या नाम दूँ मैं अब तुमको
चलो कहता हूँ के, माहताब लगती हो
कभी ख़ुशी हो तो होठों पे खिलती हो
गम में जो बरसे वो सैलाब लगती हो
शाम जुल्फों के रंगीन साए में पाले
सहर का खुशनुमा आदाब लगती हो
और वो इबादत में यूँ हाथ उठाने नहीं
काफिरों को खुदा का जवाब लगती हो
बहुत बढ़िया ....क्या बात है ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, महेंद्र भाई साब..... यहाँ तक आने के लिए...
जवाब देंहटाएंआभार समीर भाई जी..... जो आपने वक़्त दिया....
खुश रहें आप दोनों ......दुआ है....